Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 76
________________ ( ७६ ) एक प्रकार की परिस्थिति से अपने आप को छुड़ाकर दूसरे प्रकार की परिस्थितियों से अपने आपको बाँधे चले जाते हैं। कभी यह नहीं सोचते कि क्या इन परिस्थितियों से सब प्रकार की परिस्थितियों से तथाकथित अनिष्ट परिस्थितियों से भी, और इष्ट परिस्थितियों से भी हमें एक बार के लिये पूर्णतः मुक्त हो जाना है। जब तक हम परिस्थिति के दास हैं, तब तक स्वतन्त्रता कैसी ? किन्तु जिस क्षण हम परिस्थिति की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर दृष्टि देना छोड़कर परिस्थिति मात्र से अपने आपको मुक्त करके आत्मनिष्ठ होना चाहेंगे, उस क्षण कौन-सी परिस्थिति ऐसी है, कौनसा भाग्य ऐसा है, जो हमारे मार्ग में बाधा बनकर खड़ा हो सकता है? हम फिर उन्हीं शब्दों को दुहराते हुए जिन्हें हमने पहले उद्धृत किया था, एक भिन्न प्रकार से इस रूप में कहना चाहेंगे कि प्रश्न यह नहीं है कि हमारी जंजीरें लोहे की हों या सोने की, प्रश्न यह है कि हमें जंजीरों को तोड़ना है। जंजीरों से बँधा हुआ पशु, पिंजड़े में बंद तोता पिंजड़े को अपना बन्धन नहीं संरक्षक समझ ले, तो उसे मुक्त कौन कराये ? उन्मुक्त गगन में स्वतन्त्र विचरण करने वाले तोतों को क्या आपने नहीं देखा? थोड़े दिनों पिंजड़े में बंद रह चुकने के बाद यदि पिंजड़े का दरवाजा खोलकर उन्हें पिंजड़े से बाहर भी निकाल दिया जाय, तो वे अपनी स्वेच्छा से दोबारा पिंजड़े में ही घुस जाते हैं। उन्हें पिंजड़ा बन्धन नहीं नजर आता, अपनी सुरक्षा नजर आती है। उसमें उन्हें थोड़े से अन्न के दाने और पानी मिल जाता है। उन्हें यह आभास ही नहीं है कि उन्मुक्त गगन में बाग की एक शाखा से दूसरी शाखा तक फुदकते हुए उन्हें मधुर फल तो मिलेंगे ही, स्वतन्त्रता भी प्राप्त होगी। कबूतरों को देखिए । आकाश का पंछी है । उनका स्वामी उनको आकाश में उड़ा भी देता है । पर अपने दड़बे में बन्द होने के लिए स्वयं चले आते हैं। यह सब क्या है ? यह सब इसका सुन्दर उदाहरण हैं कि किस प्रकार परिस्थिति जो हमारी लाचारी होती है, जो हमारा बन्धन होता है, और जो हमारे लिए भार है, हम उसे ही अपनी सुरक्षा मान बैठते हैं, स्वेच्छा मान बैठते हैं, उसके लिये तरसते हैं और हमें इस कल्पना में भी भय लगता है कि यदि इन परिस्थितियों से हम उन्मुक्त हो गये तो न जाने क्या होगा? हमारा भविष्य असुरक्षित हो जाएगा। वस्तुस्थिति यह है कि आज जो भी बन्धन हैं, उन्हें मैंने स्वयं जन्म दिया है। उन्हें किसी ने मुझ पर थोपा नहीं, और मैं यह कह रहा हूँ कि मैं तो बंधा हुआ हूँ, मैं कर ही क्या सकता हूँ, मेरा भाग्य ही ऐसा है। हमें कोई बांधने वाला नहीं है । हमने अपने आपको स्वयं बांधा है।

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