Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 84
________________ ( 58 ) करने का पूर्ण अवसर मिलना चाहिए, पूर्ण सुविधाएँ मिलनी चाहिएँ । और "जो अतिरिक्त अपनी दैनिक आवश्यकताओं के किसी और पदार्थ पर स्वत्व समझता है, वह चोर है, दण्ड का भागी है”— इसकी घोषणा हमारे यहाँ बहुत पहले से की गई । अपरिग्रह का मूल सिद्धान्त ही यह है कि हम अपनी आवश्यकताओं को कम से कम करें और उन कम से कम आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिन पदार्थों का हम उपयोग करते हैं, उनमें ममता न रखें । ईश्वरवादी भी इस समस्त जगत् को ईश्वर का मानकर ममत्व हटाने की शिक्षा देता है, हम जो कुछ करें खायें, पियें, सब ईश्वरार्पण बुद्धि से करें और उसमें ममत्व न रखें। किन्तु साम्यवाद का कहना है कि यह तो सिद्धान्त की बात है, व्यवहार में तो धर्मशास्त्र हमें शोषण से मुक्ति नहीं दिला सकते । किन्तु प्रश्न यह है कि यदि हमारे धर्म के सिद्धान्त हमें शोषण से मुक्त नहीं कर सके तो क्या साम्यवाद के सिद्धान्तों ने हमें व्यवहार में संघर्ष से मुक्त कर दिया ? शान्ति दे दी ? क्या साम्यवाद भी अपनी प्रतिष्ठा के लिए उन्हीं हथियारों का प्रयोग नहीं करता, जिनका अन्य सिद्धान्त करते हैं ? फिर भी साम्यवाद का मूल सिद्धान्त कि सब समान हैं, जन्म से कोई छोटा बड़ा नहीं, व्यक्ति छोटा या बड़ा अपने पुरुषार्थ से होता है, बहुत सुन्दर सिद्धान्त है । किन्तु इस सिद्धान्त की अपनी एक सीमा है । यह सिद्धान्त दृश्यमान जगत् के अतिरिक्त और किसी प्रकार की सत्ता स्वीकार नहीं करता । परलोक, पाप, पुण्य और पुनर्जन्म को व्यर्थ की कल्पनाएँ मानता है । इनके सामने जब त्याग की बात रखी जाती है और यह कहा जाता है कि संसार के सुख भोग भी दुख रूप ही हैं तो यह उसे यह कहकर टाल देता है कि यदि संसार में दुख है तो क्या इसलिए संसार के सुखों को भी छोड़ दिया जाय ? हम यह पहले ही कह चुके हैं कि भौतिकवाद हमें वर्तमान में रहने की प्रेरणा देता है और इस दृष्टि से हमें व्यर्थ के अन्धविश्वासों से भी मुक्ति दिलाता है । हम यह भी देख चुके हैं कि कम से कम जैन दर्शन संसार को एक स्वप्न नहीं मानता, एक सत्य मानता है । किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी मानना होगा कि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण नहीं माना जा सकता, न यह ही कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष को प्रमाण मानकर जीवन की सब समस्याओं का समाधान हो सकता है । मनुष्य केवल रोटी पर जीवित नहीं रहता। उसकी प्राकांक्षाएँ केवल धन से तृप्त नहीं रहतीं, उसे प्यार भी चाहिए, उसे सद्भाव भी चाहिए ।' मनुष्य एक यन्त्र नहीं है, जिसे एकता के नीरस ढांचे में ढाला जा सके। उसे विवि १. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः बल्ल कठोपनिषद् १.१.२७.

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