Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 98
________________ २७ मुक्ति : प्रेम और आनन्द मूल सूत्र है स्वतन्त्रता । स्वतन्त्रता का अर्थ है कि दूसरे मेरे मार्ग में बाधा न बनें। और दूसरे मार्ग में बाधा न बनें, इसकी अनिवार्य प्रतिक्रिया यह है कि मैं दूसरों के मार्ग में बाधा न बनूं। मैं दूसरों के मार्ग में केवल उनसे द्वेष करके ही बाधा नहीं बनता। उनसे राग करके भी मैं उनके मार्ग में बाधा बनता हूँ । क्योंकि उनसे राग करके मैं उनसे कुछ चाहता हूँ। और इस प्रकार उनके अधिकार में, उनके सुख में संविभागी बनता हूँ, उनकी स्वतन्त्रता को काटता हूँ । बदले में वे भी मुझसे कुछ अपेक्षा करने लगते हैं और इस प्रकार वे मेरी स्वतन्त्रता में बाधक बनते हैं । स्वतन्त्रता का अर्थ है कि मैं किसी के बाधक न बनूं ताकि कोई मेरे मार्ग में बाधक न बने। मैं किसी के बाधक न बनूं इसका यह अर्थ है कि मैं किसी से द्वेष न करूँ और साथ ही किसी से कुछ अपेक्षा भी न रखूं अर्थात् राग भी न करूँ। मैं किसी से कुछ अपेक्षा न रखूं यह तभी सम्भव है जब मुझे अपनी स्वयं की शक्ति पर विश्वास हो । मुझे जो कुछ प्रभाव अपने अन्दर खलता है, मैं उसकी पूर्ति पदार्थों का संग्रह करके करना चाहता हूँ । इस प्रकार मेरे प्रान्तरिक प्रभाव मिटते तो नहीं, छिप अवश्य जाते हैं । किन्तु आन्तरिक प्रभावों को इस प्रकार छिपा लेना अपने किसी रोग को छिपा लेने की तरह है, उससे वह रोग शान्त नहीं होता, अन्दर ही अन्दर गहरा होता चला जाता है । अपने आन्तरिक प्रभावों को हम बाह्य पदार्थों के संग्रह से छिपा लेते हैं । पर इससे हमारे आन्तरिक प्रभावों की जो तीव्र वेदना है, जो हमें उस ग्रान्तरिक प्रभाव से छुटकारा दिला सकती थी, वह वेदना भी दब जाती है । हम मूच्छित हो जाते हैं, संग्रह की मूर्च्छा से मूच्छित । इस प्रकार हम अपने अन्तर में सब प्रभावों की पूर्ति बाह्यसंग्रहों से करना चाहते हैं पर बाह्य पदार्थों का अवलम्बन हमें स्वावलम्बी नहीं होने देता और हम यह आलम्बन केवल लौकिक पदार्थों का ही नहीं लेते अलौकिक पदार्थों का भी लेते हैं— देवताओं का आलम्बन, पुण्य की शरण, शास्त्र का प्राश्रय, ईश्वर का मार्ग में मार्ग में

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