Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 100
________________ ( १०० ) वृक्ष बनता है और उसमें से फूल' और फल विकसित होते हैं, सरिता अपनी सत्ता को मिटा कर सागर में पूर्णता पाती है। और वह व्यक्ति जिसने जन्म तो लिया पर अहंकार का विसर्जन नहीं किया, बीज ही बना रहता है, वृक्ष नहीं बनता । वह व्यक्ति जिसने जीवन पाया तो सही, किन्तु अपने अहं को नहीं खोया, उसकी जीवन-सरिता मौत की मरुस्थली में जाकर शुष्क हो जाती है, किन्तु पूर्णता के सागर में जाकर एकाकार नहीं हो सकती।" प्रेम करना सिखलाया नहीं जा सकता और जिसे हम सिखलाते हैं, वह प्रेम नहीं होता, मात्र एक शिष्टाचार होता है। प्रेम ही जीवन की सरिता को परमात्मा के समुद्र तक धकेल कर ले जा सकता है । धर्म भी सिखलाया नहीं जा सकता जिसे हम सीखते हैं, वह मात्र एक शिष्टाचार होता है। धर्म ही हमें अपने स्वरूप का ज्ञान करा सकता है। अपने स्वरूप का ज्ञान कहीं और से प्राप्त नहीं किया जा सकता। स्वयं अपनी अन्तई ष्टि से देखना होता है। बाहर से प्राप्त किया ज्ञान इतना धनीभूत अज्ञान है, कि उसमें हमें अपने अज्ञान का ही बोध होना बंद हो जाता है। ज्ञान का प्रारम्भ और अन्त तो आत्मसाक्षात्कार पर है। सत्य का बोध हर व्यक्ति को पृथक्-पृथक् करना है क्योंकि असत्य का बोध भी उसे पृथक्-पृथक् ही हुआ है। संसार एक नहीं है क्योंकि व्यक्ति एक नहीं है और संसार हमारे बाहर नहीं हैं, हमारे अन्दर है। और हमारा संसार वह है, जो हमारे अन्दर है । यह संसार सबका पृथक्-पृथक् है । इसलिए इस संसार से मक्ति भी सबकी पृथक पृथक है। जो स्वतन्त्रता का बना बनाया मार्ग सिखलाना चाहते हैं, वे हमें स्वतन्त्र नहीं बनाते, परतन्त्र बनाते हैं क्योंकि एक निश्चित और बने बनाये मार्ग पर चलने में स्वतन्त्रता कैसी? रेल को, जिसे पटरी पर ही चलना है, कोई स्वतन्त्रता नहीं है। हमारा बोध, हमारा सत्य का ज्ञान, हम से प्रारम्भ होगा, शास्त्र या गुरु से नहीं। + और पाप भी हमसे ही प्रारम्भ होता है। पाप की ज्वाला तो जहाँ जिस अन्तःकरण में जलती है, उसे अधिक जलाती है । यह दूसरी बात है कि उसकी चिंगारियाँ कुछ दूसरों पर भी प्रभाव डालें, पर उनका वास्तविक प्रभाव तो स्वयं पर होता है, दूसरे के प्रति किया गया अपराध दूसरे के प्रति किया गया अपराध नहीं है, वह अपने प्रति किया गया अपराध है। हमारी अपनी ही किसी कलुषित वृत्ति के प्रति घृणा हम दूसरे पर आरोपित कर लेते हैं । पाप का मूल स्वयं में है क्योंकि पाप का मूल अज्ञान में है। अज्ञान अर्थात् सूचनाओं का अभाव नहीं, प्रत्युत स्वयं के स्वरूप का अज्ञान है । स्वयं का स्वरूप जो हमें

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