Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ ( १०१ ) आत्मविश्वास देता है, जो हमें अपनी समस्याओं को सुलझाने की दृष्टि देता है, शक्ति देता है, और अन्ततः स्वतन्त्रता भी देता है। . हमने कहा कि हमारा स्वरूप सुख रूप है । वस्तुतः यह इतना सत्य नहीं है। सत्य यह कहना होगा कि जो हमारा स्वरूप है, वह सुख है। सुख अपने आप में कोई एक स्वतन्त्र कोटि नहीं है, जो हममें रहती हो । प्रत्युत जो हमारा अपना सहज स्वभाव है, वह हमें अनुकूल पड़ता है, उसे ही हम सुख कहते हैं ऐसा कहना अधिक ठीक होगा। पर की दृष्टि से देखें तो धर्म का अर्थ है अहिंसा और अपरिग्रह । स्व की दृष्टि से देखें तो धर्म का अर्थ है अप्रमाद और अमूर्छा । प्रमाद में और मूर्छा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रमाद का अर्थ है जीवन का, जीवन के प्रत्येक क्षण का पूर्ण उपभोग न करना, भूत की कल्पनाओं में या भविष्य की प्राशानों में डूबे रहना और वर्तमान में सोये रहना पर जब भविष्य वर्तमान बनता है तब हम उससे आगे के भविष्य की आशाओं में खोये रहते हैं और हमारा वर्तमान हमेशा ही प्रमाद में बीत जाता है । और हमारे इस वर्तमान के प्रमाद से हमारे जीवन में जो एक गहरा विषाद छा जाता है, उस गहरे विषाद को अस्थायी रूप से हमें प्रतीत न होने देने में हमारी मूर्छा, हमारी अजागरूकता, हमारी सहायता करती है । यदि हमारी मूर्छा टूट जाय, तो हमें अपने वर्तमान जीवन को पूर्णतः न भोगने की इतनी अधिक तीव्र वेदना हो कि हम अकस्मात् हड़बड़ाकर जाग जाएँ, सावधान हो जाएँ, हमारा प्रमाद भी टूट जाए। और यदि हमारा प्रमाद टूट जाए तो फिर हमें कोई वेदना ही न रह जाए जिसे भुलाने के लिए हमें मूच्छित रहने की आवश्यकता रह जाए। और ऐसी स्थिति में हम अपने में पूर्ण शक्ति से स्थिर रह सके, अपने स्वरूप का पूर्ण उपभोग कर सकें, तब हमारा ब्रह्मचर्य, ब्रह्म में आचरण सफल होगा। इस क्षण में हमें आत्मबोध होगा, जोकि परम सत्य है और जिस सत्य के बिना संसार के समस्त सत्य भी असत्य ही हैं। इस क्षण में हम में से एक शान्त, शीतल, अात्मविश्वास से भरी हुई दूसरे की प्रतिक्रिया से निरपेक्ष प्रेम की धारा प्रवाहित होगी जिसमें न द्वेष होगा, न राग, यह अहिंसा है। इस प्रकार वहां अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पाँचों व्रतों की एकता होगी। इसलिए तो शास्त्रकार यह मानते हैं कि पाँचों व्रत जब भी अपनाये जा सकते हैं, एक साथ पाँचों के पाँचों अपनाये जा सकते हैं। इनमें से किसी एक दो तीन या चार का शेष व्रतों को छोड़कर पालन नहीं हो सकता। इसके विपरीत जो प्रमाद और मर्छा में जीवित रहते हैं, वे जीवित नहीं रहते, धीमे धीमे जीवन के दिये के बुझने की प्रतीक्षा करते हैं । जीवन का अर्थ ही है ज्ञान । ज्ञान का

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102