Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 96
________________ (६६ ) न अनुभूति । जिन दो पदार्थों में अपने में और पर में हम सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, वह सम्बन्ध न हमें पर-पदार्थ का वस्तुपरक ज्ञान होने देता है, और न अपना वस्तुपरक ज्ञान होने देता है । वह मिथ्या ज्ञान है, सम्यक् ज्ञान नहीं है। __इन सम्बन्धों के संसार में रहते हुए इन शब्दों के और विचारों के स्तर पर रहते हुए व्यक्ति अपनी प्रान्तरिक क्षुद्र भावनाओं में इतना व्यस्त रहता है कि उसे वस्तु के श्रवण, दर्शन, ज्ञान और ध्यान का अवकाश ही नहीं मिलता। वह इन सम्बन्धों का ही श्रवण करता है, दर्शन करता है, ज्ञान प्राप्त करता है, और ध्यान करता रहता है। हमने कहा कि हमारे अपने अन्दर कुछ क्षुद्र व्यस्तताएँ हैं। अपने आन्तरिक भावों पर यदि हम शान्त मन से विचार करें तो हमें अपने पर हंसी आये बिना नहीं रहेगी। छोटी छोटी सी बात पर हम कितने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं, मानों वह छोटा-सा प्रश्न हमारे जीवनमरण का प्रश्न हो। और जो वस्तुतः हमारे जीवन-मरण का प्रश्न है-अपने स्वरूप का बोध, जीवन के प्रत्येक क्षण में जागरूकता-उसके प्रति हम कितने उदासीन हैं, कितने सुप्त हैं । जीवन इतना छोटा है कि उसे छोटी-छोटी बातों के लिये नहीं गंवाया जा सकता। हमने प्रारम्भ में कहा कि हमारा अपने से संघर्ष चल रहा है। किन्तु इस संघर्ष का अन्त किसी संघर्ष से नहीं होगा। हमारे अपने स्वरूप के दर्शन से और ज्ञान से जो हममें असंगतियाँ हैं, जो हममें विरोध हैं, वे स्वतः दूर हो जाएँगे। यदि हमने अपने स्वरूप को सम्बन्धों से पृथक् करके जान लिया, यदि हमने शब्दों को अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं से मुक्त होकर श्रवण करना सीख लिया, यदि हमने अपनी बुद्धि को रागद्वेष से पृथक् रखकर विश्व का दर्शन करना प्रारम्भ कर दिया, तो हमें अपने अन्दर बैठा हुआ एक केन्द्र उपलब्ध हो जाएगा, एक अहं का केन्द्र जिसमें केवल सत्ता है, क्रिया नहीं है और जिसकी यदि क्रिया है भी, तो वह किसी बाह्य क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं है। इस सारी प्रक्रिया को बड़े सहज ढंग से करना है। क्योंकि हमें अपने स्वभाव की उपलब्धि करनी है, किसी बाह्य पदार्थ की प्राप्ति के लिये संघर्ष नहीं करना है। ध्यान की प्रक्रिया जो चित्त की निविचार अवस्था से उत्पन्न होती है, इसका एकमात्र साधन है। यह निर्विचारता भी विचार से. ही उत्पन्न होती है, किन्तु निर्विचारता को उत्पन्न करने वाला विचार निर्विचारता को जन्म देकर स्वयं भी समाप्त हो जाता है। जैसे किसी कांटे से कांटे को निकालने के बाद वह कांटा भी निकाल कर फेंक दिया जाता है। उसे संजोकर नहीं रखा जाता। हमने यदि विचारों को पकड़ लिया, शास्त्र वचनों को पकड़ लिया, तो हम इस निर्विचार समाधि की स्थिति में

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