Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 93
________________ सम्यग्दर्शन : सच्चा श्रोता हमने इस काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, योनि, पुरुष और प्रात्मवाद की चर्चा में अपने विवेचन को कुछ शास्त्रीय बना दिया। शास्त्र सत्य का सहायक है। किन्तु सर्वदा शास्त्र सत्य का सहायक नहीं होता । हमने देखा कि ऊपर जिन भी वादों का हमने उल्लेख किया है, उनका दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी हो सकता है और सभी शास्त्रसिद्धान्तों का दुरुपयोग भी हुआ है, सदुपयोग भी हुआ है । वस्तुस्थिति यह है कि हमें शास्त्र के सिद्धान्त का दर्शन नहीं होता प्रत्युत शास्त्र के सिद्धान्त का जो प्रतिबिम्ब हमारे मन पर पड़ता है, उसका दर्शन होता है। शास्त्र को या शास्त्र के सिद्धान्तों को सीधा सुन सकें, उसमें हमारा अपना व्यक्तित्व न आए, इसका उपाय क्या है ? श्रावक अर्थात् शास्त्र का सुनने वाला कौन है ? हम शास्त्र को नहीं सुनते, शास्त्र के वाक्यों को सुनकर जो प्रतिक्रिया हममें पैदा होती है, उसे सुनते हैं। हम श्रावक नहीं हैं। श्रावक वह है जो अपने मन को इतना शान्त बना ले, इतना निर्मल और सुस्थिर बना ले कि अपनी प्रतिक्रियाओं से हटकर शास्त्र की या गुरु की वाणी सुन सके। ऐसे श्रावक के लिये समस्त शास्त्र-सिद्धान्त सम्यक् हैं। जो शास्त्रों के सिद्धान्तों को अपनी दृष्टि से रंग कर देखते हैं, उन्हें शास्त्रों से कुछ नहीं मिलता, केवल अपने मन में बैठे हुए राग और द्वेष का पोषण मिलता है। वे शास्त्र का श्रवण नहीं करते, अपने विकृत व्यक्तित्व में से छन कर आये हुए शास्त्र के अभिप्राय के विकृत रूप का श्रवण करते हैं। श्रावक को सम्यक् दृष्टि होना चाहिए । संसार के सब पदार्थों का हम दर्शन करते हैं। पर हमारा यह दर्शन सम्यक् दर्शन नहीं है। मिथ्या दर्शन है। क्योंकि हम संसार के पदार्थों का दर्शन नहीं करते, उन संसार के पदार्थों के सम्बन्ध में अपनी मन की प्रतिक्रिया का दर्शन करते हैं । सम्यक् दर्शन वह है जो अपने को तटस्थ रखकर संसार का दर्शन किया जाता है। समस्त पदार्थों से अपने सम्बन्ध को तोड़कर अपने राग और द्वेष को छोड़कर संसार का दर्शन किया जाता है, उस समय संसार में एक अद्भुत सौंदर्य का दर्शन होता है।

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