Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 82
________________ ( ८२ ) कारण- कार्य परम्परा को खोजता है और दर्शन मनोजगत् में तथा आत्मजगत् में । यह ठीक है कि प्रत्येक कार्य का उपादान कारण ही प्रधान कारण होता है और हम साधारणतः निमित्त कारणों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे देते हैं । यदृच्छावाद जहां तक हमें इस गलती से सावधान करता है, वहां तक वह ठीक है । किन्तु यदि यदृच्छावाद हमें यह सिखलाना चाहता है कि हम किसी कार्य के कारण की खोज ही न करें तो वह हमें पशु जगत् से ऊँचा नहीं उठा सकेगा । और यह सत्य है कि यदृच्छावाद को पूर्णतः मान लेने पर धर्म, दर्शन, और चिन्तन का तो अवकाश रह ही नहीं जाता, विज्ञान का भी उन्मूलन हो जाता है । पाश्चात्य दार्शनिकों में प्लेटो और अरस्तू आकस्मिकवाद की ओर झुके हुए थे किन्तु स्टोइक्स ने इस बात को महसूस किया कि विश्व में सब कार्यों का कोई न कोई कारण होता है।' ग्रीयर हिबेन ने कहा है कि आकस्मिकवाद उस समय का विचार है जिस समय मनुष्य अभी वैज्ञानिक ढंग से नहीं सोचता था । आज भी हम देखते हैं कि आंशिक रूप से बहुत से लोग यदृच्छावाद के पक्षपाती हैं। वे लोग लौकिक क्षेत्र में तो हर कार्य का कारण मानते हैं किन्तु वे कर्म जैसे परोक्ष कारणों को मानने के लिये तैयार नहीं हैं । भारतवर्ष में कर्म सिद्धान्त इतना अधिक प्रतिष्ठित रहा कि किसी भी दर्शन ने इसे प्रमाणित करने के लिये कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझी। इसलिए एक प्रकार से कर्म सिद्धान्त का वैज्ञानिक विवेचन भी नहीं हो सका । किन्तु इतना निश्चित है कि यह सिद्धान्त कारण और कार्य के वैज्ञानिक सिद्धान्त पर ही प्राधृत है और इस सिद्धान्त को माने बिना व्यक्ति यह अनुभव नहीं कर सकता कि संसार में उसके साथ न्याय हुआ है और यह अनुभूति प्राये बिना कि व्यक्ति के साथ जो कुछ हो रहा है वह न्यायसंगत है किसी व्यक्ति में वह प्रान्तरिक संतोष और शान्ति की भावना, जो उसकी उन्नति के लिये परमावश्यक है, नहीं आ सकती । आज कर्म सिद्धान्त पर से हमारा विश्वास हट गया तो हम यह मानने लगे कि संसार में जो कुछ मेरा दुर्भाग्य है, वह मेरी करनी का फल नहीं है, प्रत्युत एक आकस्मिक घटना है । उसे दूसरों ने पैदा कर दिया है। यह दूसरों का मेरे साथ अन्याय है । इससे असन्तोष पैदा हुआ, रचनात्मक दृष्टिकोण की जगह ध्वंसात्मक दृष्टिकोण प्रबल हो गया और जगह-जगह हिंसा फैली । 9. James, Hastings (ed.) Encyclopaedia of Religion and Ethics, New York, 1955, Vol. I, पृ० ६५. २. वही, पृ० ६४.

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