Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 77
________________ ( ७७ ) यह भाग्य का प्रश्न कहाँ प्राता है? यह प्रश्न वहाँ नहीं प्राता जहाँ मुझे परिस्थितियों से मुक्त होना है। यह प्रश्न तो वहाँ आता है जहाँ मैं एक परिस्थिति को बदल कर दूसरी परिस्थिति उत्पन्न करना चाहता हूँ । किन्तु क्या वह दूसरी परिस्थिति भी मेरे लिये उतना ही बड़ा बन्धन नहीं हो जाती ? यदि परिस्थितियों को तोड़ना है तो फिर भाग्य की प्रतीक्षा कैसी ? उन्हें आज भी तोड़ना है, कल भी तोड़ना है; वे अनुकूल हों तो भी तोड़ना है; वे प्रतिकूल हों, तो भी तोड़ना है। क्योंकि परिस्थितियाँ अन्ततोगत्वा हैं तो बाह्यभूत तथ्य । मेरा अपना स्वरूप तो वे नहीं है न ? अपने स्वरूप तक पहुँचे बिना स्थिरता कहाँ? शाँति कहाँ ? संघर्ष की समाप्ति कहाँ ? कृतकृत्यता कहाँ ? पूर्णता कहाँ ? कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा कि हममें दो प्रकार की चेतनायें हैं- एक ज्ञानचेतना, एक कर्म-चेतना । ज्ञान-चेतना में ज्ञान है, ज्ञाता है और ज्ञेय है । वहाँ कर्तृत्व नहीं है । परन्तु कर्म-चेतना में कर्ता है, कर्म है और कर्मफल है । वहाँ हम अछूते नहीं रह सकते । हमें देखना है कि हम कौन सी चेतना में हैं । यदि हममें कर्तृत्व भावना निःशेष हो गई, यदि हम ज्ञान भावना में परिनिष्ठित हैं, तो फिर नियतिवाद हमारे किस कार्य में बाधा डालेगा? क्या हमारे ज्ञान में बाधा डालेगा ? क्या हमारे सुख में बाधा डालेगा ? वे तो हमारे स्वाभाविक गुण हैं, त्रिकालवर्ती हैं। संसार की कोई शक्ति हमें उनसे पृथक् नहीं कर सकती। हमारे भाग्य ने हमारे ज्ञान और सुख को हमारी सहज स्वाभाविक शक्ति को हमें दिया भी नहीं था और हमारा भाग्य उन्हें हमसे छीन भी नहीं सकता । ज्ञान चेतना में परिनिष्ठित साधक के लिये सारे द्वार खुले हुए हैं। सारा संसार, सारा लोकालोक उसके लिए ज्ञेय है, और उन ज्ञेयों की ज्ञेयता को उसकी नियति नहीं छीन सकती, नहीं मिटा सकती और स्वयं ज्ञाता है और उसके ज्ञातृत्व को उसकी नियति उससे नहीं छीन सकती । उस श्रात्मस्वरूप में तल्लीन व्यक्ति के लिये नियतिवाद ने उसके ज्ञातृत्व और द्रष्टृत्व भाव में सहायता पहुँचाई है । यह जानकर कि संसार के समस्त पदार्थों की गति नियत है, वे अपने-अपने द्वारा निर्मित अपने-अपने मार्ग पर चलने में स्वतन्त्र हैं, उसकी अहं बुद्धि, उसकी कर्तृत्वबुद्धि, शाँत हो गई है । उसे अब किसी पदार्थ में, किसी परिस्थिति में कुछ करना नहीं, केवल उन्हें जानना है । उसके लिये अच्छे और बुरे का कोई अर्थ नहीं रह गया क्योंकि ज्ञान में आने पर कोई पदार्थ अच्छा या बुरा नहीं रहता । अच्छा या बुरा उस पदार्थ को मेरी कर्तृत्व बुद्धि बनाती है, मेरा ममत्व बनाता है, मेरा अहंभाव बनाता है । जहाँ कर्तृत्व नहीं

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