Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
View full book text
________________
( ५८ )
सत्य को खोज
इस समन्वय के
के मूल में कुछ न कुछ सत्य भी अवश्य रहता है। किन्तु इस निकालने के लिए एक निष्पक्ष दृष्टि चाहिए। जैन दर्शन में पक्ष पर इतना अधिक बल दिया गया कि गोम्मटसार ने यह स्पष्ट कह दिया कि जैनेतर दृष्टियाँ इसलिये मिथ्या हैं कि वे केवल अपने-अपने दृष्टिकोण को ही सर्वथा सत्य मानती हैं और दूसरों के दृष्टिकोण में कोई सच्चाई नहीं मानती । किन्तु ये ही दृष्टिकोण यदि अन्य दृष्टिकोणों के सत्य पर भी ध्यान दें तो सत्य बन जाते हैं । यह सर्वथा और कथञ्चित् का भेद है । सर्वथा कहने वाला अभिमानी तो है ही, अज्ञानी भी है । कथञ्चित् कहने वाला विनम्र तो है ही, अपना दिमाग भी नये-नये सत्य के लिए खुला रखता है। इस विनम्रता का अर्थ संशयवाद नहीं है और यह दृष्टिकोण कोई समझौते के निर्बल आधारों पर भी नहीं खड़ा है प्रत्युत इसका सुदृढ़ आधार है वस्तुस्वभाव जो अनन्त-गुणरूप है । वस्तु के पूर्ण स्वरूप को जानने की सामर्थ्यं तो केवल सर्वज्ञ में ही है और कह सकने की सामर्थ्य तो शायद इनमें भी नहीं है । किन्तु जितना वस्तु का स्वरूप हमें ज्ञात है, जब हम उसी को वस्तु का पूर्ण रूप मानने लगते हैं, तो वस्तु के दूसरे कई अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष उपेक्षित रह जाते हैं। इसमें हमारे मानने या नहीं मानने का प्रश्न नहीं है । वस्तु का स्वरूप निसर्गतः जटिल है और उसे जानने का यही एक ढंग है कि ज्ञात स्वरूप को जाना हुआ मान लिया जाए और अज्ञात स्वरूप के सम्बन्ध में जिज्ञासा रखी जाए। वादविवाद के लिए कोई वस्तु स्वरूप का सर्वथा अपलाप करते हुए निर्गल बातें कहने लगे, यह एक दूसरी बात है । यह वितंडा और जल्प है। किन्तु तर्क के अन्तर्गत हर व्यक्ति जब वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में कोई वक्तव्य देता है, तो उसके पीछे एक सत्य, एक दृष्टि अवश्य होती है । परिस्थितिवाद भी सर्वथा झूठ नहीं है और ईश्वरवाद भी सर्वथा काल्पनिक नहीं है । केवल ग्रात्मवाद और कर्मवाद के आधार पर व्यक्ति अपने आपको भले ही पूर्ण स्वतन्त्र मानकर चले, पर व्यवहार में उसे स्थान-स्थान पर परिस्थितियाँ ठोकर मारेंगी और उसे यह लगेगा कि उसे परिस्थितियों की महत्ता भी स्वीकार करनी है। यह ठीक है कि इन सब दृष्टिकोणों में व्यक्ति अपनी अनुभूति के अनुसार हेयोपादेय बुद्धि रखेगा, किसी को विशेष महत्त्व देगा, किसी को गौण कर देगा, पर सर्वथा अपलाप किसी का भी करना कठिन है।
१. परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा । जेणाणां पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ।।
— गोम्मटसार, लखनऊ, १६३७, कर्मकाण्ड, ८६५.

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102