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कि ये जो कुछ कहना चाहते हैं उसमें एक सत्य भी है। किन्तु साथ ही एक अति भी है, एक ऐसी अति जो उनके जीवन को और सिद्धान्तों को उपहासास्पद बना देती है। प्रकृति के निकट रहने की बात ठीक है। पर प्रकृति किसकी ? शरीर की या आत्मा की ? यदि हमें शरीर की प्रकृति को प्रमुख रखना है तब तो ऐसा लगेगा कि प्रकृतिवाद मनुष्य को फिर उसी पाशविक स्थिति में ले जाना चाहता है, जिससे लाखों वर्षों के प्रयत्न के अनन्तर मनुष्य आगे बढ़ा है । हमारे शरीर की प्रकृति तो वही है जो पशु के शरीर की प्रकृति है और हम यदि उसे ही अपने जीवन का मार्ग निर्देशक मान लें तो हमारे जीवन में और पशु के जीवन में क्या अन्तर रह जाएगा? किन्तु प्राणी केवल शरीर से नहीं बना; उसमें जीवन भी है, उसमें एक चैतन्य ज्योति भी है, और यदि स्वभाववाद हमारा ध्यान उस चैतन्य ज्योति की ओर और उसके स्वभाव की ओर
आकृष्ट करना चाहे तो उसका स्वागत है। किन्तु यदि वह यह चाहता है कि मनुष्य अपनी समस्त सांस्कृतिक उपलब्धियों को छोड़कर आदिम युग में आ जाए तो यह उसकी भूल होगी क्योंकि इतिहास अपने को कभी दोहराया नहीं करता। वे घटनाएँ जो अतीत हो चुकी हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती। प्रकृतिवाद हमें समाज के बन्धनों से, पाप और पुण्य के पचड़े से छुड़ाना चाहता है और वह कार्य तो धर्म भी करता है। किन्तु धर्म का लक्ष्य पाप और पुण्य के पचड़े से छुड़ाकर मनुष्य को एक पाप-पुण्यातीत स्थिति में पहुँचाना है, न कि प्रकृतिवाद की तरह उसे अनैतिक बनाना।
स्वभाव का अतिक्रमण तो हम नहीं कर सकते। यह ठीक ही है कि हमारे समस्त प्रयत्न स्वभाव की सीमा के अन्तर्गत ही सफल हो सकते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि हमें पुरुषार्थ छोड़ देना है। पुरुषार्थ भी तो मनुष्य के स्वभाव का ही एक अंग है। जो पुरुष को छोड़कर स्वभाववाद का प्रतिपादन करता है, वह इस तथ्य को भूल जाता है। यदि स्वभाव से यहाँ अर्थ हमारे संस्कार और आदतों का है तो भी यह मानना होगा कि उन संस्कार या आदतों को हम अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति से बदल सकते हैं। इस प्रकार केवल अपने संस्कारों के हाथ की कठपुतली होने से बचे रह सकते हैं। तब भी एक मनोवैज्ञानिक के लिये किसी व्यक्ति के संस्कारों का या आदतों का अध्ययन करना आवश्यक है। ये हमारे संस्कार ही हैं जो हमें हमारा व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। जीवन की समस्याओं को यदि सुलझाना है तो उसके लिए हमें अपने संस्कारों का अध्ययन अवश्य करना होगा।