Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 66
________________ १६ नियतिवाद : भाग्यजयी कालवाद और स्वभाववाद के अतिरिक्त एक तीसरा वाद है नियतिवाद जिस पर हमें थोड़ा विस्तार से विचार करना होगा क्योंकि भारतीय दर्शनों में सामान्यतः और वर्तमान जैन जगत् में विशेषतः यह चर्चा का विषय बना हुया है । इसकी चर्चा पर बहुत से लोग आज भी चौंक जाते हैं और चौकन्ने हो जाते हैं यद्यपि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। अनेकान्त की दृष्टि इतनी स्पष्ट है कि उसमें भय का कोई स्थान नहीं है। वह वस्तुपरक दृष्टि है, व्यक्तिपरक दृष्टि नहीं है। उसमें हमें जो जैसा है, उसको वैसा देखना और जानना है, अपनी रुचि के अनुसार उसे तोड़ना, मरोड़ना नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह चर्चा केवल जैन दर्शन में ही चल रही हो, प्रत्युत आधुनिक नीतिशास्त्र में भी नियतिवाद और इच्छा-स्वातन्त्र्य की चर्चा पूरे जोरों से चलती है। __ हमें अपनी दृष्टि को स्पष्ट रखना है कि वस्तु का स्वरूप हमारे पक्षपात से नहीं बदलेगा। हमें अपनी दृष्टि को वस्तुस्वरूप के अनुसार बदलना होगा। जैन शास्त्र स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि एकान्त नियतिवाद भी गलत है और एकान्त अनियतिवाद भी।' किन्तु इसको समझने के लिए इस विषय की गहराई में जाना होगा। हम सर्वथा नवीन व्यक्ति नहीं हैं, हमारा भूतकाल भी है। और यदि हम अपने भूतकाल को व्यर्थ मान लें तो फिर हमारा वर्तमान भी व्यर्थ हो जाएगा क्योंकि आज जो वर्तमान है, कल वही भूतकाल भी बनना है और जो आज भूतकाल लगता है कल वही वर्तमान भी था। वस्तुस्थिति यह है कि यह काल का भूत, भविष्य और वर्तमान में किया जाने वाला विभाजन हम लोगों का है जो कि केवल वर्तमान को ही देख सकते हैं पर जिनकी पैनी दृष्टि काल का अतिक्रमण कर गई है जिन्हें भूत और भविष्य भी वर्तमानवत् हस्तामलकवत् है। स्पष्ट है उनके लिए काल का व्यवधान कोई अर्थ नहीं रखता। हमारी दृष्टि से हम केवल वर्तमान में जो हैं, सो हैं । १. सूत्रकृताङ्ग, १.१.२.४.

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