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को तर्कसंगत पद्धति से सिद्ध ही नहीं कर सकते क्योंकि पुरुषार्थ क्या है और नियति क्या है ? हमारा भूतकाल का पुरुषार्थ हमारी नियति है। और हमारे वर्तमान का पुरुषार्थ हमारा पुरुषार्थ है । पर यह भेद तात्त्विक नहीं है। क्योंकि हमारा भूतकाल का पुरुषार्थ ही किसी समय तो हमारे वर्तमान का पुरुषार्थ था । और इस प्रकार यदि देखें तो एक ही क्रिया भूतकाल की अपेक्षा से नियति और वर्तमान की अपेक्षा से पुरुषार्थ है। इन दोनों में से जो एक भी निषेध करता है, वह दोनों का निषेध करता है।
किन्तु भारतवर्ष में प्राचीन काल में और आधुनिक काल मे तथा पश्चिम में भी ऐसे दार्शनिक होते रहे हैं जिन्होंने नियति को सर्वथा सशक्त माना है
और पुरुषार्थ को सर्वथा अशक्त। इस प्रकार उन्होंने एक प्रकार से वदतोव्याघात किया है पश्चिमी विद्वानों में यदि हम स्पाईनोज़ा को लें तो बर्टण्ड रसल के शब्दों में उनका मत सर्वथा नियतिवादी है, “यह केवल अज्ञान का परिणाम है कि हम ऐसा सोचते हैं कि हम अपने भविष्य को बदल सकते हैं । जो होना है, वह अवश्य होगा और हमारा भविष्य हमारे भूत द्वारा इतना निश्चित है कि हम उसमें परिवर्तन नहीं कर सकते । इसीलिए आशा और भय दोनों व्यर्थ हैं । ये दोनों इस दृष्टि पर आधारित है कि हमारा भविष्य अनिश्चित है अत: दोनों अज्ञान से प्रादुर्भत होते हैं ।"१ एक पश्चिम के दूसरे विद्वान् प्रिंगल पैटीसन नियतिवाद के खतरों को दिखलाते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति "सचमुच अपने आपको क्रमशः उत्तरदायित्व से यह दिखलाने का प्रयत्न करते हुए कि किसी भी व्यक्ति के लिए, जिसका भूतकाल ऐसा रहा हो, जैसा उसका है, अन्यथा कार्य करने का मार्ग नहीं था, अपने आपको उत्तरदायित्व से मुक्त करने का प्रयत्न कर सकता है"।२ क्योंकि नियतिवाद का ऐसा स्वच्छन्दाचारपरक अर्थ हो सकता है और इतिहास में सचमुच इस प्रकार की व्याख्या की गई है, इसलिए नियतिवाद के कट्टर विरोधियों की भी संख्या कम नहीं है। उनमें एक बटलर हैं, जिन्होंने नियतिवाद को अत्यन्त निन्दनीय शब्दों में गहित किया है । 3 १. Bertrand Russel, History of Western Philosophy, London,
1948, पृ० ५६७. २. Pattison, Pringle, The Philosophical Radicals, Edn., 1907,
प०१०१ । 3. Gladstone W.E., Studies subsidiary to Butler's Works, Ox
ford, 1896, पृ०२८६.