Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 68
________________ ( ६८ ) भूतकाल के कर्मों ने हमारी वर्तमान शक्ति की सीमाएँ बाँध दी हैं और हमारे वर्तमान के कर्म भी हमारे भविष्य के व्यक्तित्व की सीमा बाँधते हैं । किन्तु यह परतन्त्रता नहीं है। अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि हमें यह भी स्वतन्त्रता है कि हम चाहें तो परतन्त्र हो जाएँ। यह ठीक है कि परतन्त्र होना कोई नहीं चाहता। किन्तु चाहना न चाहना ज्ञान के साथ जुड़ा हुआ है । अज्ञान में न चाहते हुए भी हम बहुत से ऐसे कार्य करते हैं जिन्हें यदि हम जानते तो न करना चाहते। कभी-कभी जानकर भी और न चाहते हुए भी हम ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिन्हें हम वस्तुतः नहीं करना चाहते। एक जगह ज्ञान शक्ति का अभाव है, दूसरी जगह इच्छा शक्ति का, पर परिणाम दोनों जगह एक ही निकलते हैं । फल हमें उस कार्य का मिलता है जो हम वस्तुतः करते हैं न कि उस कार्य का जिसकी हम अज्ञानवश उस कार्य से आशा करते हैं । स्वतन्त्रता भी प्राप्त है कि मैं जब चाहूँ । अभिप्राय यह है कि मुझे यह अपनी शक्तियों को सीमित कर लूं वस्तुतः यदि मेरे भूतकाल की रेखाएँ भूतकाल के साथ ही समाप्त हो जाएँ और वर्तमान की रेखाएँ वर्तमान के साथ ही समाप्त हो जाएँ तो मेरे कर्म एक प्रकार से निष्फल कहे जाएँगे । हमने ऊपर कहा कि यह जीवन की एक कठोर सचाई है कि बीज बोने के समय में और वृक्ष आने के समय में यह अवश्य व्यवधान रहता है । ऐसी स्थिति में यदि हमारा भूतकाल वर्तमान तक आते-आते अपनी छाप नहीं छोड़ता तो यह मानना होगा कि हमारा भूतकाल व्यर्थ गया क्योंकि उसने भूतकाल में तो अपना कोई प्रभाव दिखलाया नहीं और वर्तमान तक आतेआते वह समाप्त हो गया। तो फिर उसका प्रभाव कैसे प्रकट हो ? वस्तुतः हममें से प्रत्येक अपने भूतकाल से बँधा हुआ है । हमारा वर्तमान हमारे भूतकाल में से पैदा हुआ है। यह बहुत कुछ सत्य है । पर इस सत्य को इस सीमा तक ले जाने वाले लोगों की भी कमी नहीं, जो यह कहने के लिये तैयार हैं कि क्योंकि हमारा वर्तमान भूतकाल द्वारा सीमित है, इसलिये हमारा वर्तमान सर्वथा व्यर्थ ही है । हमारा वर्तमान यदि सर्वथा व्यर्थ है तो क्या वह भूतकाल जिसने हमारे वर्तमान को व्यर्थ बना दिया, कभी वर्तमान नहीं था ? क्या जिस प्रकार हमारा यह वर्तमान व्यर्थ है, उस ही प्रकार हमारा वह वर्तमान भी व्यर्थ नहीं होना चाहिए ? यह एक ऐसा तार्किक उभयतःपाश है कि हम बिना पुरुषार्थ के नियति और बिना नियति के पुरुषार्थ

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