Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 71
________________ ( ७१ ) करें। महावीर और बुद्ध के समय में एक मक्खली गोसाल या मस्करिन गोसाल नाम के दार्शनिक हुए जो सर्वथा नियतिवादी थे। उनका कहना था कि कुछ अनिवार्य जन्म लेने के अनन्तर प्राणी दुखों से स्वतः छूट जाता है। पाप और पुण्य का कोई फल नहीं है। पाप और पुण्य का बन्ध और मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु इस सम्बन्ध में मस्करिन गोसाल के एक विचित्र मत पर ध्यान देना चाहिए। मस्करिन गोसाल नियतिवादी तो थे पर नीतिवाद के विरोधी नहीं थे। उनका यह कहना था कि यद्यपि पुण्य कर्म हमें मोक्ष के निकट लाते तो नहीं किन्तु जब हम मोक्ष के निकट आने को होते हैं तो हमसे स्वतः पुण्य कर्म होने लग जाते हैं। भाव यह है कि पुण्य कर्म हमारे मोक्ष के कारण नहीं हैं, संकेत हैं । वे हमारे मोक्ष को लाते नहीं, बतलाते हैं। वे एक प्रकार से सड़क पर लगे हुए मील के पत्थर हैं। वे हमें सड़क पर खींच कर आगे नहीं बढ़ाते किन्तु इतना अवश्य बतलाते हैं कि हम कितना आगे बढ़ आए हैं।२ मक्खली गोसाल ने एक अद्भुत प्रकार से नियतिवाद का समर्थन भी किया, और धर्म का खण्डन भी नहीं किया । इतिहास इस बात का साक्षी है कि मक्खली गोसाल स्वयं अपने जीवन में पूर्ण सदाचारी थे। किन्तु महावीर के एक दूसरे समकालिक दार्शनिक पुराणकाश्यप या पूरणकाश्यप हुए । उनका कहना है कि जो व्यक्ति हिंसा करता है, चोरी करता है, घर में सेंध लगाता है, डाका डालता है, या लूटता है, या दिन दहाड़े लूट-खसोट करता है, या व्यभिचार करता है, या असत्य बोलता है, उसे कोई पाप नहीं होता । उदारता में, आत्मनियन्त्रण में, इन्द्रियजय में और सत्यवादिता में न कोई पुण्य है, न पुण्य की कोई वृद्धि है। इस प्रकार के दार्शनिक महावीर और बुद्ध के लिये एक समस्या थे। ये दोनों दार्शनिक भी अपने आपको सर्वज्ञ और तीर्थकर मानते थे । गोसाल के अनुयायी सद्दालपुत्र का महावीर के साथ एक संवाद भी हुआ जिसका उल्लेख उपासक दशांगसूत्र में है । स्वयं गोसाल छः वर्ष तक महावीर के अनुयायी रहे। एक देवता महावीर के एक अनुयायी कुण्डकौलिक के पास आए और गोसाल के नियतिवाद की प्रशंसा करने लगे। कुण्डकौलिक ने उनसे पूछा- "तुम्हें यह देवपद पुरुषार्थ से प्राप्त हुआ है या बिना पुरुषार्थ के । यदि पुरुषार्थ से प्राप्त १. दीघनिकाय, भाग १, बम्बई, १९४२. १.२.२०. २. Zimmer, H., Philosophies of India, पृ० २६७-२६८. ३. दीघ निकाय, १.२.

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