Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 73
________________ ( ७३ ) गया है कि ये लोग यह मानते हैं कि सुख और दुख स्वयं व्यक्ति के पैदा किये हुए नहीं हैं फिर काल इत्यादि के तो पैदा किये हुए हो ही कैसे सकते हैं। सुख और दुख मोक्ष और लौकिक सुख-दुख स्वयं व्यक्ति के उत्पन्न किये हुए नहीं हैं, दूसरों द्वारा ही उत्पन्न किये जाते हैं । किन्तु व्यक्ति वही भोगता है, जो उसके भाग्य में बदा होता है। इस दृष्टि का खण्डन करते हुए सूत्रकृतांग कहता है कि जिनकी यह राय है, वे मूर्ख हैं किन्तु वे अपने आपको पण्डित समझते हैं। उन्हें समझ नहीं है । वे यह नहीं जानते कि कोई भी चीज अंशतः भाग्य और अंशतः पुरुषार्थ पर निर्भर करती है।' ऊपर जो हमने बहुत से उद्धरण दिये, उससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय दर्शनों में भी नियतिवाद और पुरुषार्थ के प्रश्न की पाश्चात्य दर्शनों से कुछ कम चर्चा नहीं हुई है । वस्तुस्थिति यह है कि भारत में नियतिवाद के समर्थन का और भी अधिक पुष्ट प्रमाण था—कर्मवाद जो कि पाश्चात्य दर्शनों में नहीं था। भारतीय दर्शनों में भी बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन जो कर्मवाद के सबसे कट्टर समर्थक थे, उनके सामने नियतिवाद का प्रश्न और भी अधिक भयंकर रूप में था। किन्तु इस प्रश्न का उत्तर भी जितना सुन्दर जैन दर्शन दे सकता था, उतना सुन्दर कोई दूसरा दर्शन नहीं दे सकता था। उसका कारण था, जैन दर्शन की अनेकांतिक दृष्टि, जिस दृष्टि के कारण दो परस्पर विरोधी लगने वाले तथ्यों में भी समन्वय और सामंजस्य पूर्णतः तर्कसंगत पद्धति से किया जा सकता था । यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि भारतवर्ष में नियतिवाद का वह रूप कभी नहीं रहा जिसमें अन्ध भाग्य पर भरोसा किया जाता है । अमरकोष में नियति के जहां बहुत से पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं, वहाँ नियति का एक पर्यायवाची शब्द विधि भी है। विधि का अर्थ है विधान, नियम । अर्थात् नियति कोई घुणाक्षर न्याय से चलने वाली यदृच्छा नहीं है, प्रत्युत कारण-कार्य सिद्धान्त पर आधारित है। चरकसंहिता में स्पष्ट कहा है कि अपना ही पूर्वजन्म में किया हुअा कर्म भाग्य कहलाता है। यहां प्रसंगतः यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक है कि भाग्य का पर्यायवाची दिष्ट शब्द भी है और पाणिनि के अनुसार जो दिष्ट को नहीं मानता, वह नास्तिक है । पाणिनि की इस परिभाषा के अनुसार जैन धर्म और बौद्ध धर्म भी सर्वथा आस्तिक दर्शन १. सूत्रकृताङ्ग १.१.२.२-३. २. अमरकोश, १.४.२८. ३. विधिविधाने दैवेऽपि-अमरकोश ३.३.१००.

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