Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 67
________________ ( ६७ ) किन्तु यह वर्तमान हमारी सत्ता का पूर्णाश नहीं है प्रत्युत मध्य है। आदि और अन्त हमारी दृष्टि से अज्ञात है, ओझल है। यदि हम अपने आपको भूत, भविष्य और वर्तमान में एक जुड़ी हुई कड़ी के रूप में देखें तो हमें लगेगा कि हमारा वर्तमान भूतकाल की देन है और हमारा भविष्य वर्तमान की देन है। यह तो संसार में प्रत्यक्ष देखने में आता है और सभी अनुभव इस सत्य के साक्षी हैं कि कोई भी कार्य अपना फल तुरन्त नहीं देता। आज जो बीज हम बोते हैं, उसका फल सम्भव है हम इस जन्म में खा सकें या न खा सकें। ऐसी स्थिति में यह बहुत सम्भव है कि आज जो बहुत से फल हम भोग रहे हैं उनका बीज हमने अपने इस ज्ञात जीवन में न बोया हो। यह विषय बहुत विवाद का है और पुनर्जन्म की स्थिति है या नहीं, इस पर अब विश्वविद्यालयों में विधिवत् वैज्ञानिक पद्धति से भी खोज होने लगी है । हम इतना अवश्य जानते हैं कि हम अपने अन्तर्जगत् को पूर्णतः नहीं जानते । स्वप्न की अवस्था में अर्द्धचेतन मन ऐसे-ऐसे विचित्र पदार्थ और कल्पनाएँ हमारे सामने ले आता है जिनकी जागृत अवस्था में हमने कभी कल्पना नहीं की थी। हम अपने अन्दर झांककर देखें तो यह लगेगा कि हमारे मन में उठने वाले विकल्पों का कोई ओर-छोर नहीं है, कोई आदि-अन्त नहीं है और यह अन्तर्जगत् में उठने वाले विकल्प यह तो मानना ही होगा कि कम से कम हमारे पुत्र, स्त्री और धन या शरीर की अपेक्षा भी हमारे व्यक्तित्व का अधिक निकट भाग हैं। इन विकल्पों के अगाध समुद्र में गोता लगाने पर भी हमें अपनी सत्ता की अनादिता और अनन्तता का कुछ न कुछ आभास तो होता ही है। ऐसी स्थिति में क्या हम अपने आपको अपने इस वर्तमान जीवन की सीमित मर्यादाओं में बाँध कर ही पूरा देख सकते हैं ? यदि नहीं तो फिर हमें अपने वर्तमान को मूलभूत में खोजना होगा किन्तु क्या वह मेरा भूतकाल मुझसे भिन्न है ? भूतकाल में जो कुछ करके मैंने अपनी स्वतन्त्रता को जितना सीमित कर लिया, क्या वह मेरा पारतन्त्र्य है? कोई व्यक्ति अपने हाथों अपने पाँव में बेड़ियाँ डालकर और फिर अपने व्यक्तित्व से पृथक् खड़ा होकर यह नहीं कह सकता कि मेरे पाँव बँधे हुए हैं, मैं परतन्त्र हूँ। यह ठीक है कि १. अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना । -गीता २.२८.

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