Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 57
________________ १६ स्याद्वाद : सम्वाद यह कर्म का सिद्धान्त कार्यकारणवाद के सिद्धान्त पर आधारित है । समस्त विज्ञान और दर्शन भी यहाँ तक कि समस्त मानव-चिन्तन कार्यकारण सम्बन्ध की मूल भित्ति पर टिका हुआ है और यही कार्यकारण-सम्बन्ध आचार के क्षेत्र में कर्म सिद्धान्त बन जाता है । जहाँ यह कहा जाता है कि जैसा बोलोगे वैसा काटोगे, जैसा करोगे, वैसा भरोगे, वहाँ हमें यह भी कहना ही होगा कि हम आज जो कुछ काट रहे हैं, हमने अवश्य उसे कभी बोया भी था और हम ग्राज जो कुछ बो रहे हैं, हमें अवश्य एक दिन उसे काटना भी होगा। यह हमारा अपना निजी मामला है। यह ठीक है कि वर्तमान में इस कर्मचक्र ने मुझे बन्धन में बांधा हुआ है पर इस कर्म सिद्धान्त की समझ ही मुझे इस बन्धन से मुक्त भी करा सकती है । 1 किन्तु भारतीय विचारकों में सभी विचारक इस मत के नहीं थे कि व्यक्ति स्वतन्त्र है । कुछ व्यक्ति को परिस्थिति का दास मानते थे और कुछ एक ऐसी प्रतिमानवीय सत्ता की कल्पना करते थे जो व्यक्ति के सुख दुख का निर्णय करती है और कुछ स्वयं व्यक्ति को अपने सुख दुख के लिए उत्तरदायी मानते थे । श्वेताश्वतरोपनिषद् में इन तीनों वादों का — परिस्थितिवाद, आत्मवाद और ईश्वरवाद का विस्तृत विवेचन है । किन्तु जैन धर्म की यह दृढ़ मान्यता है कि इन तीनों परिस्थितिवाद, आत्मवाद और ईश्वरवाद के समन्वय से ही हम सत्य तक पहुंच सकते हैं। परिस्थितिवाद के अन्तर्गत भी अनेक शाखाएँ हैं जिनमें कुछ काल को, कुछ स्वभाव को, कुछ नियति को, कुछ यच्छा को और कुछ भूत को सुख दुख का कारण मानती हैं। श्रात्मवादियों में आत्मा को ही सुख दुख का कारण माना जाता है और ईश्वरवादियों में जो अतिशयभक्तिवादी हैं, वे तो सुख दुख को ईश्वर की इच्छाधीन ही मानते हैं। पर कुछ लोग ईश्वर भक्ति को भी महत्त्व देते हैं और कर्म को भी। इस प्रकार अनेक विचारधाराओं के मानने वाले संसार में हैं । यह मतविभाजन बहुत प्राचीन काल से चला आता है। जैन धर्म में ३६३ मतों का उल्लेख है। किन्तु यहाँ ३६३ की संख्या उपलक्षण मात्र ही समझनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि हर व्यक्ति का पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण होता है । हर व्यक्ति के दृष्टिकोण

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