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( ५४ ) अपने स्वाभाविक गुणों में, अपने अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य में स्थापित करना है तब इस आत्मा की सच्ची स्वतन्त्रता है, तब व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है और तब ही व्यक्ति अपने में से सहज स्फूर्त होने वाले सुख को अनुभव करता है। तब हम जीवन के उन छिपे हुए गूढ़ तत्त्वों को, अव्यक्त और सूक्ष्म तत्त्वों को जान लेते हैं जो हमारी अपनी निधि है और तब हम स्वतन्त्र हो जाते हैं और हमारी पूर्ण शक्ति अभिव्यक्त हो जाती है ।