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हमने ऊपर दो परम्पराओं का उल्लेख किया। एक अद्वैत वेदान्त की परम्परा और दूसरी चार्वाक दर्शन की परम्परा । चार्वाक दर्शन की परम्परा में तो हम देखते हैं कि आचार का कोई महत्त्व ही नहीं है । वहाँ तो चैतन्य गुणयुक्त शरीर ही आत्मा है। यदि चार्वाकों से यह प्रश्न किया जाय, कि जड़ से चैतन्य कैसे उत्पन्न हो सकता है, तो इसका उत्तर वे यह कहकर देते हैं कि जिस प्रकार कुछ जड़ परमाणुओं को एक विशेष अनुपात से मिला देने पर मदिरा में मादकता का गुण उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के संयोग से आत्मा में चैतन्य गुण उत्पन्न हो जाता है ।
दूसरी ओर अद्वैतवादी वेदान्त की परम्परा है। जिसके अनुसार सत्य केवल आत्मा है जो नित्य कूटस्थ है और समस्त परिवर्तनशील दृश्यमान जगत् असत्य है। यह केवल हमारे मन की कल्पना है कि हम जगत् में नाम और रूप का आरोप कर लेते हैं। अन्यथा सत्य तो केवल सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। इस एकत्व दर्शन से ही शोक और मोह दूर हो सकते हैं। प्रारम्भ में हमने भी कहा था कि जीवन में सामंजस्य के लिये, समन्वय के लिये ऐक्य का होना आवश्यक है । जबतक दो हैं संघर्ष चलता रहेगा और जब तक संघर्ष है, सुख
किन्तु हमने इसके साथ ही साथ यह भी कहा था कि यह ऐक्य भावात्मक होना चाहिए, द्रव्यात्मक ऐक्य का आग्रह करना न वस्तुस्थिति की दृष्टि से ठीक होगा और न उपयोगिता की दृष्टि से । वस्तुस्थिति की दृष्टि से तो यदि हम द्रव्यात्मक ऐक्य को मानें तो हमें अपने सारे अनुभव असत्य मानने होंगे। यदि हम अपने सारे अनुभवों को असत्य मानते हैं तो फिर इसका ही क्या आधार रह जाएगा कि विविधता के समस्त अनुभवों को असत्य मानकर जो हमने द्रव्यात्मक ऐक्य की अनुभूति की, वही सत्य है । उपयोगिता की दृष्टि से भी यह मानना पड़ेगा कि अद्वैत के आधार पर किसी ठोस आचारमीमांसा की १. तच्चैतन्यविशिष्ट देह एवात्मा
सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ३. २. किण्वादिभ्यो मदशक्तिवच्चतन्यमुपजायते
_-वही, पृ०२. ३. तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वमनुपश्यतः
-ईशोपनिषद् , ५.