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परहित, दूसरे के कल्याण की कामना और निज मन्तव्य का प्रतिपादन ही अभीष्ट रहता था, उसकी भाषा भी बोलचाल की भाषा होती थी। समय के प्रभाव से जब तकप्रधान युग आया तब जैनाचार्यों ने उमास्वाति, सिद्धसेन, दिवाकर, समंतभद्र, भट्ट अकलंक जैसे उद्भट प्रखरमति तार्किक भी उत्पन्न किये जिन्होंने परमतखंडन पूर्ण ऊहापोह-पूर्वक किया और जिस समय संस्कृत भाषा ने विद्वद्वर्ग में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, तब जैन आचार्य भी अपने ग्रन्थों में अलंकृत और प्रौढ़ संस्कृत भाषा लिखने में किसी से पीछे नहीं रहे। उन्होंने उस समय यदि यह हठ किया होता कि हम तो परम्परागत आगमिक शैली में ही लिखेंगे और जनसाधारण की भाषा में ही प्रचार करेंगे तो संभवतः जैन साहित्य आज इतना समृद्ध भी न होता।
हम यहाँ इस तथ्य पर इसलिए विशेष बल देना चाहते हैं कि जिस गति से समय आज के वैज्ञानिक संसार में बदल रहा है, उस गति से मानव जाति के इतिहास में शायद पहले कभी नहीं बदला था और पिछले दो सौ वर्षों में मानव जाति के ढाँचे में जो परिवर्तन हुआ है, वह पिछले दो लाख वर्षों में कुल मिलाकर जो परिवर्तन हुआ, उससे कहीं अधिक है। विज्ञान की गति को देखते हुए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पिछले दो सौ वर्षों में जो परिवर्तन हुआ है, कोई ऐसा अद्भुत और आश्चर्यजनक कल्पनातीत आविष्कार विज्ञान के जगत् में कल हो जाय, कि उससे कहीं बहुत बड़ा परिवर्तन मानव जाति में आ जाये। इस समय की तीव्र गति से धर्म के लोग चितित हैं और उनकी यह चिन्ता स्वाभाविक भी है।
किन्तु जैन दर्शन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को धर्म की मूलभूत भावना को ध्यान में रखना होगा। सत् में उत्पाद और व्यय एक अनिवार्य शर्त है यद्यपि वह उत्पाद और व्यय सत् की ध्रुवात्मकता को समाप्त नहीं कर देता। द्रव्य की सत्ता बिना पर्याय के और पर्याय की सत्ता बिना द्रव्य के असम्भव है, फिर परिवर्तन से भय कैसा ? पर्याय परिवर्तनशील है, द्रव्य स्थिर है। धर्म का मूल रूप सनातन है, किन्तु बाह्य रूप परिवर्तनशील है और इस परिवर्तन की बाढ़ में यदि धर्म के बाह्य रूप में कुछ परिवर्तन आता है तो हम उस से डरते क्यों हैं । उदाहरण के लिये एक विषय-जातिवाद और जातिवाद से ही सम्बद्ध अछूतोद्धार का विषय-हम लें। जैन धर्म प्रारम्भ से जन्मत: जाति का विरोधी रहा है। उसने जाति के आधार पर व्यक्ति और व्यक्ति में भेद