Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 12
________________ है, और त्याग भी; वह आत्मस्वरूप का भोग है और अनात्मस्वरूप का त्याग । किन्तु आत्मस्वरूप का भोग ऐसा भोग नहीं है, जिसे जुटाना पड़े; वह स्वतः प्राप्य है । हां, अनात्म स्वरूप का त्याग अवश्य प्रयत्नसाध्य है। त्याग स्वयं में एक निषेधात्मक शब्द है, और इसीलिए धर्म के प्रसङ्ग में निषेधात्मक शब्दों का अधिक प्रयोग होता है। अभी हमने धर्म के लक्षणों में तीन गुण गिनाएअहिंसा, संयम और तप । लगेगा कि ये तीनों ही शब्द हमें कुछ करने के लिये उतना प्रेरित नहीं करते, जितना कुछ न करने के लिए। किन्तु ये जिसके करने का निषेध करते हैं, वह यदि न किया जाए, तो यह मानना होगा कि जो तत्त्व व्यक्ति को, उसके अन्तर में घुस कर उसे खण्डित-खण्डित किये हुए हैं, वे विलीन हो जाएंगे और एक समन्वित, सामंजस्यपूर्ण, सुसंगत व्यक्ति का उदय होगा। यदि ये तथ्य हट जाएँ, तो समाज को अराजकता और अव्यवस्था दूर हो जाएगी। प्रकृति कहीं भी शून्य को नहीं रहने देती. यदि एक तत्त्व हटा दिया जाता है, तो दूसरा तत्त्व वहां स्वतः आ जाता है। इसलिये संसार में प्रत्येक भाव का जोड़ा है, राग और द्वेष, काम और क्रोध, इनमें से एक जाता है तो दूसरा पा जाता है । इस प्रकार शून्य नहीं हो पाता । यह भावों का तांता इतना निरन्तर चलता है कि उसके नीचे बैठा हुआ वह जो इन भावों का स्वामी है, दृष्टि में ही नहीं आता। हमने ऊपर कहा कि प्रकृति कहीं भी शून्य नहीं रहने देती। यह ऐसा बतलाने के लिये कि धर्म का निषेध रूप भी एक विधि रूप का विधायक है । किन्तु यह निषेध ऊपर लिखे हुए जोड़ों का नहीं है । निषेध केवल द्वेष का नहीं है, राग का भी है क्योंकि ये जोड़े एक दूसरे से इतने घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए हैं, कि एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता और जहां एक रहता है, वहां दूसरा भी अवश्य रहता है। अहिंसा को परम धर्म बतलाया है। अहिंसा परमो धर्मः । इसका क्या अर्थ है ? अहिंसा का अर्थात् हिंसा का अभाव । हिंसा द्वेष का नाम है। किन्तु यदि अहिंसा का अर्थ द्वेष का अभाव कर लिया जाय, तो वह परम धर्म नहीं हो सकता क्योंकि वैभाविक तत्त्वों में वहां आधे का निषेध है, आधा भाग राग अभी शेष है और यदि राग शेष है तो द्वेष भी अवश्य है । धर्म दो में से एक का चुनाव नहीं है, वह पूर्ण का निषेध है ताकि पूर्ण की प्राप्ति हो सके। यह पूर्ण की प्राप्ति ही धर्म का विध्यात्मक रूप है । इसलिए धर्म निषेध रूप है और पूर्ण निषेध रूप है। वह अच्छे और बुरे में से एक का चुनाव नहीं है, किन्तु अच्छे और बुरे दोनों का त्याग है। किन्तु वह सर्वथा निषेध रूप भी नहीं है क्योंकि इस निषेध में अन्तर्निहित भावना निषेध की नहीं, उपलब्धि की है-स्वस्वरूप के भोग की उपलब्धि ।

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