Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 50
________________ ( ४६ ) आचरण को अर्थात् व्यवहार पक्ष को अधिक महत्ता दे दी । यह रूप धीरेधीरे इस अवस्था तक पहुँचा कि अहिंसा केवल रसोई धर्म रह गया । आहार के सम्बन्ध में कुछ विवेक मात्र कर लेना ही अहिंसा के पालन के लिये पर्याप्त समझा जाने लगा । क्रोध कषाय का अहिंसा वास्तव में निषेध थी किन्तु क्रोध का निषेध गौण बन गया । अपरिग्रह भी बाह्य वस्तुओं की सीमा बांधने तक सीमित रह गया, यद्यपि आचार्यों ने अपरिग्रह का अर्थ सदा मूर्च्छा का त्याग' माना है; बाह्य पदार्थों का त्याग उसका एक सहज फल है । इस प्रकार मान और लोभ की जिन निषेधात्मक प्रवृत्तियों का निषेध अपरिग्रह का मूल भाव था, वह भाव धुंधला हो गया और बाह्य त्याग प्रधान हो गया । सत्य और अस्तेय — गृहस्थ के जीवन में तो केवल मन्दिर तक सीमित रह गये । जीवन में निर्बल का शोषण और दूसरे के अधिकार के अपहरण में अस्तेय का उल्लंघन न माना गया और सब प्रकार के झूठ वचनों को व्यावहारिकता के नाम पर अनुमति मिल गई । ब्रह्मचर्य जो एक अपार सृजनात्मक शक्ति का स्रोत होना चाहिए था, केवल एक सीमित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और इस प्रकार अन्तर की निषेधात्मक प्रवृत्तियों का निषेध जोकि वस्तुतः एक भावात्मक या विध्यात्मक गुण था, बाह्य आचरण में परिणत होकर केवल एक निषेध धर्म मात्र रह गया और तब हमने उस निषेध धर्म का ही गुणगान करना शुरू किया और अजीब-अजीब तर्क उसके समर्थन में देने शुरू कर दिये । पहले खेत में से जो कूड़ा कचरा उग गया है, उसे काटो तो सही, साफ तो करो फिर ही तो वहाँ कुछ उगाग्रोगे इत्यादि इत्यादि । किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि यह निषेधात्मक धर्म हमारे जीवन की महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने में सर्वथा असफल रहा। और दिन प्रतिदिन इसके प्रति विमुखता बढ़ने लगी । हमने इस बढ़ती हुई विमुखता के मूल कारण को तो नहीं खोजा किन्तु इसे काल का दोष मानकर अपना पीछा छुड़ा लिया । हमने कहा कि जीवन में हम मूर्त के इतने उपासक हैं कि अमूर्त को भी समझने के लिए मूर्तरूप ही दे देते हैं और साथ ही हमने यह भी कहा कि जीवन वस्तुतः अमूर्त है । इसका क्या अर्थ है ? जीवन को हम अमूर्त क्यों १. मुच्छा परिगहो वृत्तो- दशवेकालिक, ६.२०. २. तुलनीय - प्रान्तरपरिग्रह तथा बाह्यपरिग्रह - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ११६.

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