Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 48
________________ कषायः ऋणात्मक शक्तियाँ हमने ऊपर कहा कि हमारी दृष्टि विधिपरक होनी चाहिए निषेधपरक नहीं। पर जैन शास्त्रों का अध्ययन इस बात का साक्षी है कि उसमें दृष्टि बहुत कुछ निषेधपरक ही है । इस विषय को अच्छी प्रकार समझ लेने की आवश्यकता है। जैन शास्त्र में जिनका निषेध है, वे स्वयं निषेधात्मक प्रवृत्तियां हैं, वस्तुस्थिति यह है कि जीवन में हमें सब कुछ प्राप्त है, पर कुछ ऐसी निषेधात्मक ऋणात्मक शक्तियां हैं, जो हमारे उपलब्ध पदार्थ को हमसे दूर रखती हैं। यदि साधक की दृष्टि सबसे पहले उन निषेधात्मक शक्तियों के निषेध पर जाय, तो यह स्वाभाविक ही है। हमारा व्यक्तित्व, हमारी सबसे बड़ी सम्पदा है। किन्तु वही व्यक्तित्व जब अहंकार के संकीर्ण वृत्त में कैद हो जाता है, तो मान बनकर एक निषेधात्मक शक्ति का कार्य करता है। वह हमारे व्यक्तित्व को हमारे वास्तविक रूप में दूसरों पर तो अभिव्यक्त होने ही नहीं देता, स्वयं हमारे सम्मुख ही हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं आने देता और हम उस सम्पदा से वंचित रह जाते हैं। हमारी दूसरी शक्ति है, हमारा प्रेम । किन्तु हमारा वही प्रेम जब विपरीत दिशा में चलता है तो क्रोध का रूप धारण कर लेता है और वह क्रोध हमें उस प्रेम की अनन्त अनुपम सम्पदा से वंचित कर देता है। आत्मसुरक्षा का भाव प्रकृति ने हमें सहज रूप में दिया है। वह हमारी जीवन सत्ता के लिये अनिवार्य है। किन्तु वही विकृत रूप में लोभ का रूप धारण कर लेता है और जब हम सत्य को तोड़मरोड़ कर उसके उपासक नहीं रह जाते, बल्कि उसे अपना दास बना लेते हैं, तो इसे हम माया कहते हैं। यह मान, क्रोध, लोभ और माया चार निषेधात्मक शक्तियाँ हैं । इन चार को कषाय कहा गया है क्योंकि ये हमारे स्वाभाविक रूप को रंग देती हैं, रंजित कर देती हैं। इन चार का निषेध निषेधात्मक दृष्टि का परिचायक नहीं, प्रत्युत विध्यात्मक इष्टि का ही पूरक है। हम अपनी प्रेम की और व्यक्तित्व की सम्पदा को प्राप्त कर सके, सत्य को उपलब्ध कर सकें और एक अभय स्थिति को प्राप्त कर सकें, इसके लिये मान, क्रोध, माया और लोभ का निषेध अनिवार्य है।

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