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किसी का मन सहज ही मोह लिया जाता है । किन्तु जहाँ धर्म का पालन स्वर्ग के प्रलोभन और नरक के भय से होता है वहाँ वस्तुस्वभाव के साक्षात्कार का प्रश्न नहीं रह जाता क्योंकि भय या प्रलोभन से धर्म का आचरण एक आरोपित तत्त्व है, एक बाहर से आने वाला तत्त्व है, वस्तु के अन्तर में से प्रस्फुटित होने वाला धर्म नहीं । किन्तु धर्म के नाम पर बहुत सारे भय और प्रलोभन गढ़ लिये गये और जो धर्म अभय को सबसे पहली शर्त मानता था, वही धर्म भय का सबसे बड़ा प्रश्रयदाता बन गया ।
हमने ऊपर जनक की कथा कही और आरोपित धर्म का खण्डन भी किया । किन्तु यह बाह्य आचरण का निषेध स्वयं एक दूसरे पाखण्ड की जड़ बन गया । व्यक्ति अपने मन की निर्बलता के कारण अपने बाह्य आचरण को निर्मल नहीं रख सकता और उसके पीछे कारण यह जोड़ देता है कि बाह्य निर्मलता से या बाह्य आचरण से क्या होता है मन निर्मल होना चाहिए, 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' । पर हम जानते हैं कि यह भी एक प्रकार की श्रात्मप्रवंचना है। जहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि मन में निर्मलता नहीं है तो बाह्य की निर्मलता ढोंग है वहाँ यह भी कहा जा सकता है कि यदि हमारा मन निर्मल है तो हमारा बाह्य श्राचरण स्वतः निर्मल होगा क्योंकि हमारे मनोभाव ही हमारे आचरण में प्रकट होते हैं । यह तो सम्भव है कि हमारे मनोभाव कलुषित हों और हमारा बाह्य प्राचरण निर्मल दिखाई पड़े क्योंकि हर व्यक्ति अपने आप को बाहर से पवित्र ही दिखाना चाहता है । किन्तु यह कैसे सम्भव है कि हमारे मनोभाव तो निर्मल हों पर हमारा बाह्य आचरण तदनुकूल पवित्र न हो क्योंकि कोई भी मनुष्य मन के निर्मल होने पर बाह्य आचरण को कलुषित दिखा कर क्या प्राप्त करना चाहेगा। ऐसी स्थिति में तो यही मानना होगा कि या तो वह मन के निर्मल होने का ढोंग रच रहा है। और या उसे मन के निर्मल होने का स्वयं को ही भ्रम हो गया है ।
इसे ज्ञान और कर्म का समन्वय कहा जा सकता है। बिना ज्ञान के कर्म का कोई अर्थ नहीं होता, पर बिना कर्म के ज्ञान भी निरर्थक है। ज्ञान और चारित्र्य को साथ-साथ चलना चाहिए। पर धर्म का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कुछ परम्पराएँ ज्ञान के नाम पर चरित्र की उपेक्षा करती रहीं, और कुछ परम्पराएँ बाह्य आचरण को इतना अधिक महत्व देती रहीं कि ज्ञान दृष्टि का सर्वथा अभाव हो गया और बाह्य श्राचरण केवल यांत्रिक क्रिया
बन कर रह गई । जब-जब इस प्रकार किसी परम्परा या सम्प्रदाय में प्रवृत्ति