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धर्मः पुण्यपापातीत स्थिति हमने ऊपर कहा कि धर्म चुनाव नहीं है, वह निषेध है। इसका अर्थ यह है कि धर्म केवल तर्कातीत नहीं है, वह कर्मातीत भी है, पुण्यपापातीत भी है। पुण्य और पाप का जोड़ा है। यह आत्मा विभाव के ही दो रूप हैं जो उसके स्वभाव की प्राप्ति में बाधक हैं। समस्त शास्त्र एक स्वर से यह घोषणा करते हैं कि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म जीव को बांधते ही हैं, मुक्त नहीं करते । एक सोने की शृंखला है, दूसरी लोहे की शृंखला है।' जिस तोते में उन्मुक्त गगन में विचरण करने की तड़प है, उसे सोने का पिंजरा लोहे के पिंजरे से कम दुखदायी नहीं है। जिसे स्वरूप की प्राप्ति की उत्कट इच्छा है, उसके लिए वे विरूप कर्म, जो केवल व्यक्ति में विसंगति पैदा करते हैं, कोई महत्त्व नहीं रखते। शुभ कर्म भी व्यक्ति को एक इकाई बनाने में असमर्थ हैं, वे भी उसकी दुविधा मिटाने में असमर्थ हैं। क्या कोई ऐसा शुभकर्म है जो सब प्राणियों को सब समयों में समान सन्तोष प्रदान कर सके ? कोई ज्ञान के वितरण में अपने आपको महान माने हुए है, कोई धन के दान का अभिमान लिये अपने को धर्मात्मा मानता है, कोई निर्धन और अपाहिजों की सेवा शुश्रूषा में अपने को धन्य मानता है। किन्तु चिन्तन के एकांत क्षणों में क्या सबको यह अनुभव नहीं होता कि वे अभी कृतकृत्य नहीं हुए? यह सारा विधि-विधान केवल मनुष्य के लिये एक भुलावा मात्र रहता है और वह अपने जीवन में कृतकृत्यता का अनुभव किये बिना ही समाप्त हो जाता है । अन्ततः क्या हमारे समस्त तथाकथित पुण्य कर्म भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति की इच्छा से प्रेरित नहीं होते ? क्या महाभारत में व्यास ने तथाकथित पुण्य कर्मों को करते समय व्यक्ति के मन में अन्तर्निहित रहने वाली वासना को ही दोनों भुजाएँ उठाकर नहीं घोषित किया था, जब यह कहा कि धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति होती है तो फिर धर्म का सेवन क्यों न किया जाए ?२ तो क्या धर्म काम और
१. सौवणियं पि णियलं बंधदि, कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एव जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।
समयसार, दिल्ली, १९५६, गाथा १४६. २. धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ।
विमा महाभारत, पूना, १६३३, १८.५.६२.