Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 14
________________ ( १२ ) ज्ञान-मीमांसा और प्राचार-मीमांसा दोनों परस्पर इतने घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं कि उनका पृथक् करना असम्भव है। महात्मा बुद्ध यह कहते थे कि मुझे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि मेरे बाण लगा है और वैद्य उस बाण की चिकित्सा कर सकता है । यह प्रश्न सर्वथा व्यर्थ है कि वह बाण किस प्रकार की लकड़ी का बना हुआ है कि उसे मारने वाला किस जाति का व्यक्ति था और वैद्य किस जाति का है ? इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने आत्मा, परमात्मा और परलोक सम्बन्धी बहुत से प्रश्नों को अव्याकृत कहकर अनुत्तरित ही रहने दिया । उदाहरणतः मोक्ष के बाद आत्मा की स्थिति रहती है या नहीं, महात्मा बुद्ध ने इसका उत्तर नहीं दिया। पर इतिहास इस बात का साक्षी है कि महात्मा बुद्ध के अपने अनुयायी भी उनके बारम्बार निषेध करने के बावजूद इन प्रश्नों में खूब उलझे और इनके समाधान खोजने का उन्होंने अन्य मतावलम्बियों से किसी भी दृष्टि से कम प्रयास नहीं किया। ऐसा क्यों है ? क्या हम यह कहेंगे कि ये महात्मा बुद्ध के शिष्यों की एक कमजोरी थी कि वे इन व्यर्थ के दार्शनिक वादविवादों से बचकर नहीं रह सके? वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य के बहुत से जो स्वाभाविक गुण हैं उनमें से सत्य की जिज्ञासा भी एक स्वाभाविक गुण है। उसे व्यर्थ कह देने से गुज़ारा नहीं होता। मनुष्य जो कुछ करना चाहता है, उससे पहले यह जान लेना चाहता है कि सत्य क्या है ? क्योंकि उसे ज्ञात है कि सत्य को जाने बिना उसका आचरण ठीक कदापि नहीं हो सकता। जैन धर्म ने धर्म शब्द का जहाँ एक ओर वस्तु-स्वभाव अर्थ किया, वहाँ दूसरी ओर प्राचार या चारित्र्य अर्थ भी किया। जिसका अर्थ यह है कि उन्होंने इस सत्य को अच्छी तरह जान लिया था कि वस्तु के स्वरूप का ज्ञान और चारित्र्य का पालन इतने अधिक घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं कि उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। जानना आत्मा का एक स्वाभाविक गुण है और उसकी जिज्ञासा की कोई सीमाएँ नहीं बाँधी जा सकतीं । वह अज्ञात से अज्ञात पदार्थ की अगाध गहराइयों में उतरना चाहता है। यह कहना ठीक नहीं है कि उसकी यह जिज्ञासा उसके लिए कल्याणकर नहीं है।

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