Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 18
________________ ५ सुख : एक मूलभूत कामना यों इच्छा तो हममें अनन्त हैं-धन की इच्छा, यश की इच्छा, पुत्र की इच्छा, ज्ञान की इच्छा और न जाने कौन-कौन सी इच्छाएं । किन्तु यह सभी इच्छाएं मूलभूत नहीं हैं । मूलभूत इच्छा हम उसे कहेंगे जहां जाकर इच्छाएँ रुक जाएं, 'क्यों' का प्रश्न समाप्त हो जाए । यह प्रश्न किया जा सकता है, कि हम धन क्यों चाहते हैं, हम यश क्यों चाहते हैं, हम ज्ञान क्यों चाहते हैं । किन्तु यदि हम इस प्रश्न पर विचार करें कि हम सुख क्यों चाहते हैं तो हमें रुकना पड़ेगा । इस प्रश्न में अपने आप में एक असंगति सी, एक अटपटापन सा नजर आएगा, मानों यहां प्रश्नों का अन्त हो जाता है, जिज्ञासा का अन्त हो जाता है । यहां आकर जिज्ञासा समाप्त हो जाती है । हमने ऊपर कहा कि जल शीतल क्यों है, अग्नि उष्ण क्यों है, यह प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर नहीं दिया जा सकता है, यह प्रति प्रश्न हैं । सुनते हैं कि एक बार जनक की सभा में गार्गी ने एक प्रश्न किया था जिसके उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे गार्गी यह अतिप्रश्न है, तुम इसे मत पूछो । अन्यथा तुम्हारे सिर के टुकड़ेटुकड़े हो जाएंगे । अन्ततः तर्क की भी एक सीमा है। प्रश्नों का भी एक अन्त है और उस सीमा के अनन्तर किये जाने वाले प्रश्न प्रतिप्रश्न हैं। किसी पदार्थ के स्वभाव के सम्बन्ध में क्यों का प्रश्न भी ऐसा ही एक प्रश्न है । स्वभाव हमारे अधीन नहीं है । हमारे सारे विचार ही स्वभाव के अधीन हैं । यह प्रश्न तो नहीं किया जा सकता कि अग्नि उष्ण क्यों है; हां, यह प्रश्न किया जा सकता है, और इसका उत्तर भी दिया जाता है कि अग्नि को हाथ क्यों नहीं लगाना चाहिए। किन्तु इस प्रश्न के उत्तर में जब यह कहा जाय, कि अग्नि को नहीं छूना चाहिए क्योंकि वह गर्म होती है, तो यह उत्तर अपने आप में पूर्ण है, इसके आगे यह प्रश्न नहीं किया जा सकता कि अग्नि गर्म है क्यों ? यह पूछा जा सकता है कि हम धन क्यों चाहते हैं और इसका उत्तर भी दिया जा सकता है कि धन से हमें अमुक-अमुक पदार्थ प्राप्त होते हैं। यह भी पूछा

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