Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 19
________________ (१७ ) जा सकता है कि हम उन अमुक-अमुक पदार्थों को क्यों चाहते हैं, और उसके उत्तर में हम बतला सकते हैं कि उन पदार्थों से हमारी अमुक-अमुक आवश्यकताएं पूरी होती हैं । यह भी प्रश्न हो सकता है कि हम उन आवश्यकताओं की पूर्ति क्यों चाहते हैं और उत्तर में यह कहा जा सकता है कि उन आवश्यकताओं की पूर्ति से हमें सुख मिलता है और यदि वे आवश्यकताएं पूरी न की जाएं तो दुख होता है। किन्तु यह पूछना अपने आप में ही बहुत बेतुका है कि हम सुख चाहते क्यों हैं, और यह क्यों चाहते हैं कि हमें दुख न हो । सुख हमें अच्छा लगता है, दुख हमें अच्छा नहीं लगता । पर यह तो प्रश्न का उत्तर नहीं है। सुख हमें अच्छा क्यों लगता है, दुख बुरा क्यों लगता है, और इसका यही उत्तर है कि इस 'क्यों' का कोई उत्तर नहीं है । सुख हमें अच्छा लगता है और अच्छा लगता है, दुःख हमें अच्छा नहीं लगता और अच्छा नहीं लगता। मानों हम उन सब जीवन के लक्ष्यों को प्रश्न कर कर के छांटते चले गये हैं और एक ऐसे अन्तिम लक्ष्य पर पहुँच गये हैं जो केवल लक्ष्य है, किसी का साधन नहीं है । धन किसी अन्य पदार्थ के लिये साधन है । अन्य पदार्थं किसी अन्य पदार्थ के लिये साधन है। पर सुख किसी का साधन नहीं है, वह स्वयं ही साध्य है, वह परम साध्य है। वह हमारी अन्तिम इच्छा है। वह मेरे स्वरूप की प्राप्ति है जहां आकर मुझे फिर अन्य किसी पदार्थ की आवश्यकता नहीं रह जाती, जहां पाकर मैं टिक सकता है, जिसके आगे चलने की इच्छा समाप्त हो जाती है, जहां जीवन की पूर्णता, कृतकृत्यता है । यह सुख न केवल जीवन का अन्तिम लक्ष्य है, चरम उद्देश्य है, प्रत्युत मेरा अपना स्वभाव भी है। यहां आकर न आगे कुछ करने की इच्छा रह जाती है, न कुछ जानने की। जि हो यह रहा है कि हम सुख के साधनों को ही सुख समझ बैठे हैं । शास्त्रों में जो सुख का निषेध किया जाता है, सुख को भोग की हेय संज्ञा देकर उसके त्याग का उपदेश दिया जाता है, वह वस्तुतः सुख का निषेध नहीं है, सुख के साधनों को ही सुख मान बैठने का निषेध है। मुझे शास्त्र में एक भी ऐसा प्रसंग अब तक प्राप्त नहीं हुआ, जहां स्वयं सुख का निषेध हो, सुख को त्याज्य बतलाया हो। शास्त्र तो तीन प्रकार की एषणाओं को छोड़ने की बात कहते हैं-पुत्र की इच्छा, धन की इच्छा, यश की इच्छा हेय है। क्योंकि ये इच्छाएँ अपने आप में पूर्ण नहीं हैं, ये साधनों की इच्छाएं हैं, साध्य की इच्छा नहीं हैं और हमारे जीवन की दुर्घटना यह है कि हमने इन साधनों को साध्य मान लिया है।

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