Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 43
________________ ( ४२ ) जो आत्मा का सहज उल्लास आना चाहिए था, उसकी अवहेलना हो गई और ऐसा धर्म एक आरोपित धर्म बन गया, एक बलपूर्वक थोपा जाने वाला धर्म बन गया । विषय और भोगों को हमने त्याग दिया पर उसके स्थान पर जो शून्य पैदा हुआ वह रिक्त बना रहा और उस रिक्त स्थान में कोई और नहीं या सका, इसलिये विषयभोगों की सूक्ष्म लालसाएं उस स्थान को भरने लगीं । जिन सूक्ष्म दृष्टि लोगों ने उन सूक्ष्म विषय लालसाओं को पहचाना, उन्होंने यह जाना कि धर्मं तो एक ढोंग है, दिखावा है, पाखण्ड है। एक समय था कि व्यक्ति को यह अभिमान था कि उसके पास इतनी सम्पदा है और जब उसने उस सम्पदा को तो छोड़ दिया और श्रात्मसम्पदा को पाया नहीं तो एक रिक्तता, एक शून्यता पैदा हो गई और उस रिक्तता को एक सम्पदा के अभिमान से भी अधिक भयंकर, त्याग के अभिमान ने भर दिया, और त्यागी विषय भोगों को छोड़कर भी त्याग के अभिमान में डूबा रहा । यदि हम इस समस्या पर इस ढंग से विचार न करते प्रत्युत इस प्रकार विचार करते कि हमें आत्मानन्द या अपने सहज स्वभाव से प्राप्त होने वाले रस का आस्वादन करना है तो उस अनुपम अलौकिक रस की एक घूंट लेते ही विषयभोगों का सुख स्वतः हलाहल के समान कटु लगने लगता और तब हमारे लिए इस उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि विषयभोग छोड़ने हैं क्योंकि तब हम उन विषयभोगों को छोड़ते नहीं, वे हमसे स्वयं छूट जाते और ऐसी स्थिति में यह अहंभाव कि हमने त्याग किया, नहीं आ सकता । जहाँ तक आत्मा के सहज स्वभाव से उत्पन्न होने वाले आनन्द का प्रश्न था, उसका तो अभिमान किया ही नहीं जा सकता क्योंकि वह कोई प्राप्ति नहीं है, किन्तु पहले से ही प्राप्त पदार्थ की अभिव्यक्ति मात्र है। ऊपर से देखें तो इन दोनों स्थितियों में कोई भेद नहीं है । दोनों स्थितियों में त्याग है, निवृत्ति है, किन्तु यदि तत्वतः परीक्षा करें, तो दोनों स्थितियों में रात-दिन का अन्तर है। पहली स्थिति केवल हमारी निषेधात्मक स्थिति की परिचायक है । उसमें हम कुछ छोड़ देते हैं किन्तु वह छोड़ना केवल छोड़ने के लिये है । किन्तु मनुष्य का स्वभाव ऐसे निषेध को स्वीकार नहीं कर सकता कि जिसमें केवल निषेध हो, कुछ उपलब्धि न हो। इसके तीन सम्भव परिणाम हो सकते हैं- पहला तो यह सम्भव परिणाम है कि हम जीवन के सुखभोगों का निषेध करते चले जाएँ और हमारा जीवन एक नीरस व्यापार बन जाए । हमारे जीवन का आनन्द स्रोत सूख जाए। इसका परिणाम है एक ऊब, एक

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