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का विकास ऐतिहासिक पद्धति से कैसे हुआ होगा किन्तु यदि वैचारिक स्तर पर विचार करें तो ऐसा लगता है कि एक विचार की प्रतिक्रिया में दूसरा विचार पैदा हो जाता है और दूसरे विचार की प्रतिक्रिया में तीसरा विचार पैदा हो जाता है और इस प्रकार विचारों की श्रृंखला बनती चली जाती है । किन्तु हम जानते हैं कि प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति कभी स्वस्थ नहीं हुआ करती । उसमें सदा प्रति हो जाने का भय रहता है । और यदि दो प्रतिक्रियाओं के अतिरंजित मार्गों के बीच में एक समन्वित मार्ग उपस्थित किया जा सके, तो वह सत्य के निकट होगा, इसकी अधिक सम्भावना होती है । जैन चिन्तकों ने इस समन्वय की पद्धति को एक स्वतन्त्र चिन्तन का रूप दे दिया और बहुत विस्तार से समन्वित मार्ग का प्रतिपादन उन्होंने किया । सम्भवतः किसी अन्य दर्शन ने मध्यम मार्ग या समन्वित दृष्टिकोण पर इतना अधिक बल नहीं दिया जितना जैन दर्शन ने दिया । किन्तु हम यह जानते हैं कि मध्यस्थ रहना या प्रतिक्रियाओं से मुक्त रहना बहुत कठिन है और जैन दर्शन भी इन प्रतिक्रियाओं का शिकार बन गया । जैन आचार्यों ने प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक, श्रावक और साधु, निश्चय और व्यवहार दोनों मार्गों को साथ-साथ चलने की प्रेरणा दी थी। किन्तु जैन दर्शन का इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह समन्वय की भावना शास्त्रों में तो लिखी रही, पर जीवन बहुत कुछ एकांगिता आ गई।