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हमें उसे प्राप्त करने के लिये उसके निकट जाना होता है, इस प्रकार प्रानन्द हमसे दूर कहीं नहीं है जहाँ हमें उसे पाने के लिये जाना हो। वह संस्कार्य भी नहीं है, अर्थात् ऐसा भी नहीं है कि हमें किसी पदार्थ को परिष्कृत करके आनन्द प्राप्त करना है। किसी पदार्थ को विकृत करके प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आनन्द उत्पाद्य भी नहीं है कि जिस प्रकार गेहूँ के बीज से गेहूँ के दाने उत्पन्न किये जाते हैं, उसे उत्पन्न किया जा सके। वह हमारा अपना निजी शाश्वत स्वभाव है, अपना सहज रूप है। उसकी प्राप्ति में यदि कोई बाधा है, तो वह अज्ञान की है। वेदान्त ने उपनिषदों की परम्परा में ज्ञान पर अधिक बल दिया यद्यपि उपनिषदों में ऐसे वाक्यों की कमी नहीं थी जिनमें कर्मों की महत्ता का बलपूर्वक प्रतिपादन है। ईशोपनिषद् ने स्पष्ट कहा है कि व्यक्ति को कर्म करते हुए ही जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए।' लोकमान्य तिलक ने अपने भाष्य में यह पूर्णतः सिद्ध कर दिया कि गीता भी कर्म योग की ही शिक्षा देती है। किन्तु शंकराचार्य ने अपने उद्भट विद्वत्ता के बल पर समस्त वेदान्त का चाहे वह उपनिषद् हो या गीता, या ब्रह्मसूत्र, ज्ञान परक ही अर्थ लगाया। उन्होंने एक ऐसे दार्शनिक ढाँचे का निर्माण कर लिया था जिसके अनुसार संसार में बन्धन का केवल एक ही कारण रह जाता था और वह था अज्ञान । अतः मुक्ति का भी एक ही साधन था ज्ञान । इसके लिए उन्हें उपनिषदों में और गीता में ज्ञान के पोषक वाक्य भी मिल गए।
इस कड़ी में हम एक और विशेष परम्परा की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं और वह परम्परा है वैशेषिकों की। वैशेषिक सूत्र में धर्म का साधन केवल पारलौकिक सुख या मोक्ष ही नहीं माना गया, इहलौकिक सुख को भी धर्म के साध्यों में से माना । २ इस प्रकार महाभारत की उस परम्परा का जिस में धर्म को अर्थ और काम का साधन बतलाया गया है, वैशेषिक सूत्र ने उस परम्परा से समन्वय कर दिया जो परम्परा धर्म का उद्देश्य केवल मोक्ष मानती थी। किन्तु भारतीय इतिहास पर यदि दृष्टि डालें तो ऐसा लगता है कि इस समन्वित
१. ईशोपनिषद्, २. २. यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धिः स धर्म:
YE -वैशेषिकसूत्र, इलाहाबाद, १६२३, १.१.२. ३. धर्मादर्थश्च कामश्च
.-महाभारत, १८.५.६२.