Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 37
________________ ज्ञान को कारण माना ।' हमारे अज्ञान के कारण हमसे दोष होते हैं, वे दोष हमें निरर्थक कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। वह हमारी प्रवृत्ति, हमारे जन्म का कारण है । और हमारा जन्म हमारे दुख का कारण है। इस योगदर्शन और न्यायदर्शन के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनके समय तक भारतीय दर्शन एक नया मोड़ ले चुका था और यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस प्रकार की दृष्टि ने हमारे जनजीवन में निराशावाद को स्थान दिया। जो दर्शन और धर्म दुख का नाश करने के लिए और सुख की प्राप्ति के लिये उत्पन्न हुआ था, वह जैसे दुख का उपासक बन बैठा। भागवत में कुन्ती ने कृष्ण के प्रति जो ये वचन कहे वे भारतीय जनमानस के अच्छे परिचायक हैं कि हे जगत् गुरु हमें निरन्तर विपदा का सामना करना पड़े क्योंकि विपत्ति में आपका स्मरण होता है जिससे कि पुनर्जन्म की जड़ कट जाती है ।२ कबीर ने स्पष्ट कहा : सुख के माथे सिल परे नाम हृदय से जाय । बलिहारी दुख आपनो पल पल नाम रटाय॥ स्पष्ट है कि ये सब भावनाएँ भारतीय जन-मानस को निराशावाद की दिशा में धकेलती रहीं और बहुत कुछ अब भी धकेलती हैं। हम कह चुके हैं कि निराशावाद मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है । जहाँ अाशा का प्रकाश नहीं है, वहाँ समस्त सूझ-बूझ समाप्त हो जाती है; वहाँ दर्शन और धर्म की तो बात ही क्या, साधारण लौकिक कार्य भी करने असंभव हो जाते हैं। किन्तु यदि हम सांख्य, योग और न्याय की दृष्टि को थोड़ा अधिक गम्भीरता से सोचें और उसमें से निराशावाद के विकार को निकाल दें तो हम यह देखेंगे कि ये दर्शन एक ऐसे सुख की खोज में पागल हैं जो सुख मनुष्य को पूर्ण कर दे, कृतकृत्य कर दे, उसके जीवन को एक अनुपम उल्लास से भर दे। किन्तु इस पर भी यह मानना होगा कि एक ऐसा समय अवश्य आया जब इन दर्शनों का उद्देश्य केवल निषेध रूप रह गया अर्थात् दुख की निवृत्ति । और इन दर्शनों ने यह स्वीकार करने से इन्कार कर दिया कि वे किसी ऐसी अवस्था की खोज में हैं जहाँ आनन्द होता है। किन्तु यह मानना पड़ेगा कि ये सभी दर्शन वेदमूलक हैं, उपनिषद् को प्रमाण मानते हैं और उपनिषद् में जब ब्रह्म की चर्चा १. दु:खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदन्तरापायादपवर्ग: न्यायसूत्र, पूना, १६३६,१.१.२. २. श्रीमद्भागवत १.८.२५.

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