Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 20
________________ ( १९ ) बुद्धिमान पुरुष है, जो पुण्य को भी पाप ही मानता है ।' ऊपर जो कुछ हमने कहा वे सब शास्त्रों के वचन हैं और चाहे हम उन्हें पढ़कर कितना ही क्यों न चौंके उनका एक ही अर्थ निकलता है कि यहां पुण्य की भी निन्दा है । किन्तु हम सुख भोगों की निन्दा को सुनकर नहीं चौंकते तो फिर पुण्य की निन्दा को सुनकर क्यों चौंकते हैं ? क्या पुण्य में और सुख में कारण-कार्यभाव नहीं है ? क्या उनमें अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है ? जहां पुण्य है, वहां सुखभोग अवश्य होंगे । और जहां सुखभोग है, वहां उससे पहले पुण्य अवश्य रहे होंगे । तो यदि एक की निन्दा है तो दूसरे की भी निन्दा की जाए, इसमें आश्चर्य की क्या बात है । किन्तु यह ध्यान में देने वाली बात है, कि जहां पुण्य की निन्दा करने वाले शास्त्र में से यह वाक्य हमने उद्धृत किये, वहां पुण्य की प्रशंसा करने वाले भी वाक्यों को खोज निकालना कोई असम्भव बात नहीं है । वस्तुतः देखा जाए तो समस्त शास्त्र पुण्य के विधि-विधानों से भरे पड़े हैं और हमारा सारा जीवन भी अर्चना, पूजा, दान, साधु सेवा इत्यादि पुण्य कार्यों में ही तो बीतता है । और हम इसे ही तो धर्म मानते हैं । तब क्या हमारी यह सारी धारणा मिथ्या है ? क्या अब तक शास्त्र के पुण्य विधान ने हमें वंचित किया ? इसका उत्तर हां और नहीं दोनों में दिया जा सकता है । हमने ऊपर कहा कि सुख की इच्छा तो मनुष्य में स्वाभाविक है, किन्तु जो हम गलती करते हैं, वह यह कि हम सुख के साधनों को सुख मान बैठते हैं और वहीं रुक जाते हैं और जब हमें उनसे सुख मिलता नहीं, क्योंकि सुख उनमें तो है नहीं, वे तो सुख के निमित्त मात्र थे, तब हम कहने लगते हैं, कि संसार में सुख नहीं है, संसार दुखरूप है और इस प्रकार निराशावाद का जन्म होता है । और मनुष्य के लिये निराशा से बढ़कर मार्ग में और दूसरी कौन-सी बाधा आ सकती है ? क्योंकि यदि आशा है तो आस्था है और यदि आस्था है तो आत्मनिष्ठा है और यदि आत्मनिष्ठा है तो परिस्थितियां मार्ग को नहीं रोक सकतीं । लोग कहते हैं कि भारतीय-दर्शन निराशावादी है । यह उपदेश देता है कि संसार में दुख ही दुख है । किन्तु हम क्या उस व्यक्ति को जो वस्तुस्थिति को स्वीकार करता है, निराशावादी कहकर सचाई को टाल सकते हैं। क्या यह सचाई नहीं है कि समस्त सुखों के साधन उपलब्ध होने पर भी हम सुखी नहीं १. जो पुण्णो वि पाउ वि भणइ सो बुद्ध को वि हवइ । — योगसार१७.

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