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( २० ) हैं । हमारे मन में एक असन्तोष है, हमारी आंखों में एक सूनापन है । मनुष्य प्रकृति का सर्वोत्तम प्राणी है, जीवन के विकास की परम्परा में अन्तिम सोपान है। मनुष्य से श्रेष्ठतर पदार्थ इस संसार में नहीं और मनुष्य की यह गति है कि फूल और पौधे जो जीवन के विकास की परम्परा में अत्यन्त निम्न स्तर के प्राणी हैं, वे हरे भरे हैं, खिले हुए हैं, प्रसन्न हैं, और मनुष्य मुझया हुआ है जैसे उसका कुछ खो गया है। क्या इस जीव को यह मनुष्य की अत्यन्त विकसित देह इस प्रकार दुख में गला-गला कर समाप्त कर देने को मिली है ? यह एक वस्तुस्थिति है। इसका सामना करना होगा, इस आस्था के साथ कि यदि मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है, तो वह प्रकृति में उपलब्ध सर्वोत्तम सुख का अधिकारी भी है। उसे अपनी विकसित इन्द्रियों और मन तथा बुद्धि के बल से उस सुख की प्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है जो सुख देवताओं को भी दुर्लभ है। इसमें निराशावाद कहां आता है ? हाँ वर्तमान से असन्तोष अवश्य है किन्तु असन्तोष तो उन्नति का मूल है। जहां सन्तोष है वहां प्रयास नहीं रहता। और जहां प्रयास नहीं है, वहां उन्नति कैसी ? सच पूछा जाय तो परिवर्तन प्रकृति का नियम है । या तो हमें उस परिवर्तन की दिशा को उन्नति की ओर मोड़ना होगा, और नहीं तो वह हमें अवनति की ओर ले जाएगा। प्रकृति में स्थिरता नहीं है, वहां निरन्तर गति है। यह गति यदि ऊर्ध्वमुखी हो सकती है, तो प्रयत्न से ही हो सकती है और नहीं तो पानी के समान नीचे की ओर बहना इसका स्वभाव है।
किन्तु इस सब में निराशावाद कहां है ? हां यथार्थवाद अवश्य है । दुख जीवन की एक वास्तविक स्थिति है जिसे दिवा-स्वप्न ले-लेकर झुठलाया नहीं जा सकता और कबूतर के प्रांख मींच लेने से तो बिल्ली भाग नहीं जाती? हम लोग माने या न माने दु:ख तो है। किन्तु उस दुख के सामने जो अपनी आस्था को खो देता है, धर्म उसे निराशावादी मानता है, उसकी निन्दा करता है। चाहे इस निराशा का दायित्व हम अपनी विपरीत परिस्थितियों पर डालकर कितना ही दोष से मुक्त रहना चाहें, पर धर्म निराशा का दायित्व, दुख का दायित्व हमारी परिस्थितियों पर नहीं, स्वयं हम पर डालता है।
१. असन्तोष: श्रियो मूलम्-महाभारत, सभापर्व ५५.११