Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 16
________________ ( १४ ) है, कि वह उन्मुक्त गगन में विहरता हुआ, अपने मूल नीड़ में पहुँच सकता है जहाँ उसके सारे अवयव विश्राम पा सकते हैं, जहाँ उसके सारे प्रयास कृतकृत्य हो सकते हैं। यदि आस्था नहीं तो ज्ञान व्यर्थ है, यदि ज्ञान नहीं तो क्रिया व्यर्थ है । अतः महात्मा बुद्ध ने जब इन प्रश्नों को अनावश्यक कहा तो उनका यह अभिप्राय था कि व्यर्थ की सूचनाएँ संग्रह के करने में लगा रहना वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति में बाधक है। अन्यथा तो वे स्वयं बुद्ध थे। उन्हें बोधिलाभ हुआ था भला वे बोध का निषेध कैसे करते ? पर महात्मा बुद्ध का उपदेश भी आज हमारे लिए एक महान सन्देश का कार्य करता है कि हम ज्ञान के मूल स्रोत को देखें, व्यर्थ के तथ्यों को एकत्रित कर-करके हम आन्तरिक ज्ञान के अभाव की पूर्ति उसी प्रकार नहीं कर सकते, जिस प्रकार जिस कुएं के आन्तरिक जल स्रोत सूख गये हों, उसको ऊपर से पानी डाल-डाल कर नहीं भरा जा सकता । कुएं के आन्तरिक स्रोत से निकल कर आने वाला जल ही कुएँ का जल कहलाने का अधिकारी है, यों चाहे कहने के लिये हम उसमें ऊपर से ला लाकर पानी डालते रहें, और यह मानते रहें कि कुएं में पानी है। हमारी अन्तरात्मा के भी आन्तरिक जलस्रोत बन्द पड़े हैं। उन पर न जाने किन-किन संस्कारों की मिट्टी चढ़ चुकी है। तब क्या हम बाहर से सूचनाएं प्राप्त कर करके अपने आपको ज्ञानवान् बना सकेंगे? क्या यह बाहर से सूचनाओं का डाला गया जल इस कारण सड़ नहीं जाएगा कि इसका कूप से कोई तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। सच पूछे तो यह ऊपर से डाला गया जल तो मूल स्रोतों पर से मिट्टी हटाने में बाधा ही पहुँचाएगा। इस दृष्टि से यदि विचार करें तो लगेगा कि महात्मा बुद्ध ने इन प्रश्नों को और इनके सम्बन्ध में की जाने वाली कल्पनाओं को ठीक ही निर्वाण-सुख को प्राप्ति में बाधक कहा था। यी हमारा यह बाहर से आने वाला ज्ञान ही व्यर्थ नहीं है, वे समस्त कर्म भी जिन पर हम अपनी राग-द्वेष बुद्धि से अच्छापन या बुरापन आरोपित कर लेते हैं, वे भी उसी प्रकार व्यर्थ हैं । जल अनेक कारणों को पाकर अनेक गुणों को धारण कर सकता है पर जब इसे अपने आप पर छोड़ दिया जायगा, तो यह स्वयं ही ठंडा हो जाएगा। शीतलता जल का स्वभाव है और इसीलिये यह स्वयं सदा शीतलता की ओर उन्मुख रहता है। हमने कहा कि बाह्य ज्ञान या केवल तथ्यों की सूचना हमारा कुछ हिताहित नहीं कर सकतीं, आरोपित कर्म भी हमारा कोई हिताहित नहीं करता। केवल स्वभाव का ज्ञान ही उपादेय है। वैभाविक कारण स्वभाव के ज्ञात होने में बाधक हैं । वेदान्ती कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द रूप है। आत्मा का यह 'सच्चिदानन्द' विशेषण उसके मूलभूत स्वाभाविक गुणों को

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