Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi Author(s): Dayanand Bhargav Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu View full book textPage 8
________________ वह विजातीय है। उसका समस्त विकास क्या मेरी उस असंगति को, जिस का अभी हमने उल्लेख किया, विनाश कर सकेगा? मेरे अपने अन्दर जो सुर बेसुरा हो गया है, और हम सबके जीवन में जो संगीत के स्थान पर बेसुरापन आ गया है, क्या बाह्य तत्त्व, चाहे उन्हें हमने समाज से परम्परा के रूप में ग्रहण किया है, और चाहे हमने अपने ही भूतकाल से उन्हें संस्कारों के रूप में उपलब्ध किया है, हमारे जीवन में संगति का संगीत उत्पन्न कर सकेंगे? हमने ऊपर कहा है कि क्या कोई ऐसे मौलिक तत्त्व हैं जिन्हें हममें से निकाल लिया जाय तो हम हम ही न रहें? यह एक काल्पनिक प्रश्न है क्योंकि वस्तुतः तो इस प्रश्न के उत्तर में जो तत्त्व प्राप्त होगा वह हमारा अविभाज्य अंग होगा; उसे हममें से पृथक् नहीं किया जा सकेगा। और जो हमने कहा कि हम हम न रहें, सो भी एक असम्भावना है क्योंकि पदार्थ की सत्ता न नष्ट की जा सकती है और न उत्पन्न । पर फिर भी यह प्रश्न रोचक है क्योंकि इसके उत्तर में हमें अपना स्वभाव प्राप्त हो सकता है, वह स्वभाव जो हमारे इस असंगति के बेसुरे सुर में, शायद एक शान्त मौन किन्तु अत्यन्त मनोरम संगीत उत्पन्न कर दे, जो हमारा अपने से चलने वाले संघर्ष को विलीन कर दे और जो हमारे दूसरे से चलने वाले संघर्ष को भी विलीन कर दे क्योंकि एकत्व का दर्शन होने पर अनेकत्व, जो संघर्ष का मूल है, विलीन हो जाएगा। अनेकत्व भी दो प्रकार का हो सकता है-एक सत्ता का अनेकत्व, एक धर्मों का अनेकत्व, अर्थात् एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से द्रव्य की दृष्टि से भिन्न हो सकता है और स्वभाव की दृष्टि से भी भिन्न हो सकता है। वास्तविक संघर्ष भाव की दृष्टि से भिन्नता का है, द्रव्य की दृष्टि से भिन्नता का नहीं। महावीर ने कहा कि जिसे तुम मारना चाहते हो, उत्पीड़ित करना चाहते हो, वह तुम स्वयं ही हो। तो यहां द्रव की एकता का प्रतिपादन नहीं किया जा रहा, प्रत्युत भाव की दृष्टि से ही एकता का प्रतिपादन किया जा रहा है। यदि वह भावात्मक ऐक्य हमें प्राप्त हो सकता है, तो उसका एक ही मार्ग है और वह है मौलिक आधारभूत स्व-स्वभाव का ज्ञान । १. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । गीता २.१६.Page Navigation
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