Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 6
________________ यह समस्या क्या इतनी गूढ़ है ? प्रतीत तो ऐसा होता है कि यह बुद्धि तो सब में सहज होती है कि क्या करना है और क्या नहीं करना ? फिर मनीषियों को कैसा व्यामोह ? सत्य है, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान न्यूनाधिक मात्रा में सब में सहज है। किन्तु प्रश्न यह है कि कर्तव्य-अकर्तव्य तो सापेक्ष हैं। कर्ता के बदलने पर कर्तव्य भी बदल जाता है और कठिनाई यह है कि सबका व्यक्तित्व इतनी शीघ्रता से बदलता है कि क्षण में कुछ और क्षण में कुछ । तो क्या कर्तव्य भी क्षण-क्षण बदलेगा ? होना तो यही चाहिए। किन्तु प्रश्न यह है कि जो कुछ बदलता है वह मेरा वास्तविक स्वरूप है, मेरा अपना स्वभाव है, या विभाव अर्थात् वे तत्त्व जो मैंने अपने चारों ओर से अपने अन्दर संगृहीत कर लिए हैं ? और स्वभाव और विभाव की ही पहचान क्या सरल है ? बाहर से ग्रहण किये तत्त्व क्या इतने अधिक सघन तो नहीं हो गये कि उनके नीचे दबा हुआ स्वभाव पहचानना ही दुर्लभ हो जाये ? लगता ऐसा ही है। हमने ऊपर कहा कि हमारा व्यक्तित्व खण्ड-खण्ड हो गया है, टूट चुका है। वह एक अखण्ड इकाई नहीं है। "मुण्डे मुण्डे मतिर भिन्ना" की बात तो कही ही जाती है पर हम स्वयं भी तो क्षण-क्षण में भिन्न" हो जाते हैं, खण्डित हो जाते हैं। एक क्षण हमें धन इतना प्रिय लगता है और धर्म की भावना इतनी क्षीण पड़ जाती है कि मानो वह कभी थी ही नहीं, और एक क्षण प्रवचन के आवेश में हम इतने बह जाते हैं कि मानो हममें वित्तैषणा का नाम ही नहीं है। जिस समय हममें धन की लोलुपता प्रबल होती है तो न हमें अपयश की बाधा आती है, न परलोक का भय सताता है, और हम धन की प्राप्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। दूसरे ही क्षण हमें अपना यश इतना प्रिय होता है, हमारी लोकेषणा इतनी प्रबल होती है कि हम उसके लिए धन को पानी की तरह बहाने के लिए तैयार हो जाते हैं, और जिस समय हममें वासना प्रबुद्ध होती है तो कुछ सूझता नहीं है, पागल हो जाते हैं। इन सब तथ्यों में परस्पर क्या संगति है ? मैं फिर वही प्रश्न दुहराता हूँ कि हम एक व्यक्ति हैं या बहुत से व्यक्तियों की अव्यवस्थित असंगत भीड़ मात्र हैं ? ____और जब मुझमें स्वयं अपने में इतनी असंगतियाँ हैं, इतने परस्पर विरोधी तत्त्व हैं, इतनी अव्यवस्था है, तो भला दूसरे व्यक्ति में और मुझ में क्या संगति होगी, क्या साम्य होगा, क्या तालमेल बैठेगा? मैं अपने स्वभाव का निश्चय स्वयं करने चलूं तो क्या कर पाऊंगा? मेरा कौन-सा स्वरूप मौलिक है, आधारभूत है, स्वाभाविक है, सत्य है और कौन-सा स्वरूप कृत्रिम है, ऊपर से अोढ़

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