Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu

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Page 4
________________ समस्या : असंगति मूल समस्या है मेरी अर्थात् व्यक्ति की। मैं एक व्यक्ति हूँ यह भी संदेहास्पद है। यदि मैं एक व्यक्ति हूँ तो कौन सा ? जब मैं तर्क के धरातल पर सोचता हूँ तो मेरी चिन्तनधारा दूसरी होती है; जब मैं भावना के स्तर पर सोचता हूँ तो दूसरी। जब मेरे मन में बहुत लम्बे काल से चले आने वाले संस्कार मुखर होते हैं तो मैं दूसरा व्यक्ति होता हूँ, और जब मेरा विवेक प्रबुद्ध हो जाता है तब मैं दूसरा व्यक्ति होता हूँ। जब मैं भाग्य पर भरोसा करता हूँ, जब मैं पराश्रित होता हूँ, तो जो व्यक्ति में होता हूँ वह उससे सर्वथा भिन्न है जो मैं उस समय होता हूँ जब मैं अपने पुरुषार्थ पर, अपने बाहुबल पर, अपने पर विश्वास करते समय होता हूँ। जिस समय मेरी प्राकृतिक (वस्तुतः तो इन्हें प्राकृतिक नहीं, प्रत्युत वैकृतिक कहना चाहिए, किन्तु अभी हम इस शब्द का प्रयोग उस अर्थ में कर रहे हैं जिस अर्थ में सामान्यतः किया जाता है) इच्छाएँ मुझे अपने हाथ की कठपुतली बना लेती हैं, तब मैं किसी और ही प्रकार नाचने लगता हूँ और जिस समय मैं अपनी बुद्धि की लगाम को अपने हाथों में लेकर अपनी इन्द्रियों को, अपने उंगली के इशारे पर नचाता हूँ उस समय मैं दूसरा ही व्यक्ति हो जाता हूँ। _जब कभी मैं अपने इन विविध रूपों पर-अपने इस विराट रूप पर विचार करता हूँ तो मुझे अपने पर रोना और हँसना एक-साथ आता है। जो कुछ मैंने अपने एक रूप में किया होता है अपने दूसरे रूप में मुझे वह सर्वथा असंगत और बेहूदा नज़र आता है। क्या मैं एक व्यक्ति हैं, या बहुत सारे व्यक्तियों की अव्यवस्थित भीड़ मात्र हूँ ? मेरे व्यक्तित्व का एक पक्ष, जो सर्वथा अपने आप में एक पूर्ण व्यक्तित्व सा लगता है, जिसका निर्माण करता है, मेरे अपने ही अन्दर बैठा हुआ एक दूसरा व्यक्ति, उसका विध्वंस कर देता है। यह तमाशा क्या है ? मेरा कोई चिन्तन ऐसा नहीं, जिसके मूल में मैं न बैठा होऊँ। और मेरे इस “मैं” की यह दशा है कि मेरे इन विविध रूपों में से असली "मैं" कौन-सा है, यह पहचानना ही दूभर हो गया है। मैं

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