Book Title: Jain Jivan Darshan ki Prushtabhumi Author(s): Dayanand Bhargav Publisher: Ranvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu View full book textPage 5
________________ अपने ही परस्पर विरोधी व्यक्तित्वों की भीड़ में मानों खो-सा गया हूँ। किसी भी समस्या पर विचार करूं, यह समस्या तो सब समस्याओं की जड़ में बैठी हुई है। मुझे सुख चाहिए, मुझे दुःख नहीं चाहिए, मैं ऐसा करता हूँ, मैं ऐसा करता था, मैं ऐसा कर दूंगा, मैं ऐसा जानता हूँ, मैं ऐसा देखता हूँ। यानी "मैं" कहीं कर्ता है, कहीं भोक्ता है, कहीं ज्ञाता है, कहीं द्रष्टा, पर है सब जगह। और मेरा सारा जीवन उन क्रियाकलापों में बीत जाता है जिनका केन्द्र "मैं" है। किन्तु इन सब क्रियाकलापों से मुझे मिलता क्या है ? मेरा एक व्यक्तित्व जिसका निर्माण करता है, दूसरा उसे निर्ममता से कुचल डालता है। जिसका दूसरा निर्माण करता है उसे तीसरा कुचल डालता है। और मैं अपने आपसे ही लड़ता हुआ, जूझता हुआ, संघर्ष करता हुआ, जाने किस अज्ञात लक्ष्य की ओर बढ़ा चले जाता हूँ। मैंने अपने मन से ही किसी को शत्रु, किसी को मित्र मान रखा है। पर ईमानदारी से कहूँ कि क्या किसी और शत्रु ने मेरा इतना नुकसान किया है जितना मैंने स्वयं अपने आप ? और क्या किसी और मित्र ने मुझे इतना लाभ पहुंचाया है जितना मैंने आज तक अपने आपको अपने अप्रमत्त, सावधान, जागरूक व्यवहार द्वारा पहुँचाया है? महावीर ने कहा,' श्रीकृष्ण ने कहा और न जाने किन-किन लोगों ने कहा कि मनुष्य अपना आप ही शत्रु है, आप ही मित्र है । हे मनुष्य, तू बाहर अपने मित्रों को क्यों खोजता है ? स्वावलम्बी बन । तू अपना मित्र आप ही है । _इस सबका क्या अभिप्राय है ? धर्म तो एक पदार्थ है, ज्ञेय है, विधेय है । उसका विधाता, उसका ज्ञाता, उसका पालक तो मैं हूँ। मैं पहले अपने को तो समझू । अन्ततोगत्वा मेरा कौन-सा स्वरूप सत्य है ? जीवन में न जाने कितनी बार मुझे निर्णय लेने होते हैं, कितनी बार दुविधाएँ आकर खड़ी हो जाती हैं। मेरा एक रूप कहता है ऐसा करो, दूसरा मन होता है ऐसा करूँ। में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता हूँ। गीता कहती है कि इस विषय में कवि भी व्यामोह में पड़ जाते हैं कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। १. अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठियसुपठिो । उत्तराध्ययन २०.३०. २. आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः गीता ६. ५. ३. आचाराङ्ग १. ३. ३. ४. ४. कि कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यन मोहिताः। गीता ४,१६.Page Navigation
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