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भद्रबाहु-संहिता। infrintimilimtitititiurmiritur
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३५ वाँ अध्याय है, जिसमें लगभग ६० श्लोक बाकी नहीं रहता कि यह सब कथन उक्त वसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह ' ग्रंथसे उठाकर बृहत्संहितासे उठाकर ही नहीं बल्कि चुराकर रक्खे गये हैं और जिनका पिछले लेखमें उल्लेख रक्खा गया है । साथ ही इससे ग्रंथकर्ताकी किया जा चुका है। इन श्लोकोंके बाद एक सारी योग्यता और धार्मिकताका अच्छा पता श्लोकमें वास्तुशास्त्रके अनुसार कथनकी प्रतिज्ञा मालूम हो जाता है। देकर, १३ पद्य इस बृहत्संहिताके 'वास्तु- (३) पहले लेखमें, भद्रबाहु और राजा विद्या ' नामक ५३ वें अध्यायसे भी उठाकर श्रेणिककी ( ग्रंथकर्ता द्वारा गढ़ी हुई ) असम्बद्ध रक्खे हैं। जिनमेंसे शुरूके चार पोंको आयर्या मुलाकातको दिखलाते हुए, हिन्दुओंके 'बृहछंदसे अनुष्टपमें बदल कर रक्खा है और बाकीको त्पाराशरी होरा ' ग्रंथका उल्लेख किया जा चुका प्रायः ज्योंका त्यों उसी छंदमें रहने दिया है। है । इस ग्रंथसे लगभग दोसौ श्लोक उठाकर इन पद्योंसे भी दो नमूने इस प्रकार हैं:- भद्रबाहुसंहिताके अध्याय नं० ४१ और ४२ में १ षष्ठिश्चतुर्विहींना वेश्मानि भवन्ति पंच सचिवस्य । रक्खे गये हैं । संहितामें इन सब श्लोकोंकी स्वाष्टांशयुता दैये तदर्धतो राजमहिषीणाम् ॥ ६॥ नकल प्रायः ज्योंकी त्यों पाई जाती है। सिर्फ
(-बृहत्संहिता।) दस पाँच श्लोक ही इनमें ऐसे नजर आते हैं सचिवस्य पंच वेइमानि चतुहीना तु षष्ठिकाः। जिनमें कुछ थोड़ासा परिवर्तन किया गया है। स्वाष्टांशयुतदैर्ध्याणि महिषीणां तदर्धतः ॥ ६८॥
(-भद्रबा० सं०।)
१-भौमजीवारुणाः पापाः एक एव कविः शुभः । २ ऐशान्यां देवगृहं महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम् ।
शनैश्चरेण जीवस्य योगोमेषभवो यथा ॥४१-१६॥ नैर्ऋत्यां भाण्डोपस्करोऽर्थ धान्यानि मारुत्याम् ॥ ७८ ॥
२-स्वात्रिंशांशेऽथवा मित्रे त्रिंशांशे वा स्थितो यदि । इन पद्योंमें दूसरे नम्बरका पद्य ज्योंका त्यों
तस्य भुक्तिः शुभा प्रोक्ता भद्रबाहुमहर्षिभिः४२-१८ नकल किया गया है और बृहत्संहितामें नं० ११८
३-एवं देहादिभावानां षड्वर्गगतिभिः फलम् । पर दर्ज है । पहले पद्यमें सिर्फ छंदका परिवर्तन . है, । शब्द प्रायः वहीके वही पाये जाते हैं । इस
सम्यग्विचार्य मतिमान्प्रवदेत् मागधाधिपः ४२-द्वि.१७ परिवर्तनसे पहले चरणमें एक अक्षर बढ इनमेंसे पहला श्लोक ज्योंका त्यों है और वह गया है-८ की जगह ९ अक्षर हो गये हैं। यदि उक्त पाराशरी होराके पूर्वखंड सम्बन्धी १३ वें ग्रंथकर्ताजी किसी मामूली छंदोवित्से भी अध्यायमें नं० १९ पर दर्ज है । दूसरे श्लोकमें सलाह ले लेते तो वह कमसे कम 'सचिवस्या 'कालविद्भिर्मनीषिभिः ' के स्थानमें 'भद्रके स्थानमें उन्हें 'मंत्रिणः । कर देना जरूर बाहुमहर्षिभिः ' और तीसरे श्लोकमें ' कालबतला देता, जिससे छंदका उक्त दोष सहजहीमें वित्तमः' की जगह मागधाधिपः ' बनाया दूर हो जाता । अस्तु ।
गया है । दूसरे श्लोकमें भद्रबाहुके नामका जो ऊपरके इस संपूर्ण परिचयसे-ज्योंके त्यों १ यह श्लोक बृहत्पाराशरीहोराके ३७ वें अध्यायमें उठाकर रक्खे हुए, स्थानान्तर किये हुए, छूटे नं. ३ पर दर्ज है। हुए, छोड़े हुए और परिवर्तित किये हुए पद्योंके २ यह श्लोक बृ. पाराशरी होराके ४६ वें, अध्या-. नमूनोंसे-साफ जाहिर है और इसमें कोई संदेह यका ११ वा पद्य है।
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