Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ MALAITICILLAImmmmmmm जैनहितैषीRETIRTHERNImmITANTRIEI केवल अपनी सामाजिक रूढ़ियोंको ही नहीं परन्तु हानिरहित अल्प आमोद प्रमोदके लिए भी कुछ अपने धार्मिक व्यवहारोंमें भी परिवर्तन करनेके लिए सामग्री हमें अपने भाइयों के लिए छोड़ देनमें कोई तत्पर होना चाहिए । हमारे आचारके नियम सर्वत्र हर्ज नहीं। इस संबन्धमें यह जान कर किसे प्रसएकसे नहीं हो सकते । यह मैं नहीं कह रहा हूं कि नता न होगी कि हमारी समाजमेंसे पंडित और हमें आचार्योंके सिद्धान्तोंका पालन नहीं करना बाबू, इत्यादि प्राचीन भेद उठते जा रहे हैं । हमारे चाहिए । कहनेका अर्थ यही है कि उन सिद्धान्तों- विद्वान पंडितोंके विचारोंमें धीरे धीरे परिवर्तन होता के भावका-उनके spiritका-न कि उनके अक्ष- जा रहा है । अँगरेजी पढ़े लिरेव युवक भी अब रोंका-हमें पालन करना होगा । धार्मिक सुधारके पश्चिमको अपनी उन्नतिका आदर्श मानना तथा नामहीसे हमारे जो मित्र घबड़ाने लगते हैं उन्हें पंडितोंकी ओर अनादरकी दृष्टि से देखना छोड़ते जानना होगा कि आजकल तर्कका ज़माना है । हमें जा रहे हैं । निःसन्देह हमारी उन्नतिके लिए ये सब अपने सिद्धान्तोंका अर्थ समयके भावके अनुकूल करना सुचिह्न हैं, तो भी, अब भी हमारा भावी कार्य बहुत होगा, तभी हमारा धर्म सार्वभौम धर्म हो सकेगा। बड़ा है । हमें मूढविश्वास तथा कुरीतियोंकी चट्टानें हमारा सामाजिक संगठनका धार्मिक व्यवहारके साथ तोड़ना है । जैन जातिको उठानेका कार्य हमें दृढ संबन्ध होनेके कारण दूसरेमें परिवर्तन किये कदापि आशारहित न मानना चाहिए। मैं नहीं बना हम एक भा सुधार नहा कर सकत, अतएव, समझता कि यह हमारे योग्य होगा कि हम निराश महाशयो. जैसे जैसे समय पलटता जायगा तैसे होकर जैन कौमके सुधार व उसकी उन्नतिके तैसे हमें अपने धार्मिक व्यवहारोंकी प्रणालीमें भी कार्यको छोड दें, तथा अन्य जनसमाजमें जैनधर्मका परिवर्तन करते जाना पड़ेगा। नियमोंका पालन प्रचार कर उसीके द्वारा जैनधर्मकी उन्नति करनेका कर सिद्धांतका नाश करना उचित नहीं कहा उद्योग करें । वर्तमान जैनजाति ही जैनधर्मका जासकता। हमें यह न भूलना चाहिए कि धर्मका प्रसार कर सकेगी यह हमें अवश्य मानना होगा। एक बडा उद्देश उपयोग है । वह धर्म नहीं जो कोई भी व्यक्ति जैनधर्मको ग्रहण करने के पहले यही मानव समाजको उपयोगी नहीं। जिस समय धर्म पछेगा कि जैनधर्मने भारतमें एक जनसमाजका क्या समाजको उपयोगी नहीं रहता उसी समय उसका उपकार किया है। कहा जा सकता है कि सुधा अंत समझना चाहिए । इसलिए धर्मको उपयोगी बनाये रखनेके लिए यह आवश्यक है कि समय समय रकी चर्चा करनेवाले पापका बंध करके अपने लिए पर उसके आचार-नियमोंमें परिवर्तन किया जाय- नरकका मागे बनाते हैं परन्तु क्या इसका यह कौमकी रुढ़ियोंका सुधार किया जाय । परन्तु , a उत्तर उचित न होगा कि हमें नरक जाना स्वीकार भाइयो, इसीके साथ हमें यह भी स्मरण रखना है, परन्तु कौम तथा धर्मका अंत स्वीकार नहीं ? चाहिए कि इस परिवर्तनके कार्यमें हमें सावधानीसे अतएव, इस सुधारके कार्यके लिए हमें परिवर्तित काम लेना चाहिए । सामाजिक रूढियोंके बनमें कई होनेके लिए अवश्य तत्पर होना चाहिए । हम पौधे ऐसे भी हैं जिनकी यदि सम्हाल की जाय तो औरोंको जैनी बनानेका उद्योग कर रहे हैं । मैं वे सुगंधित पुष्प पैदा कर सकते हैं; सुधारके पूछता हूं कि क्या हमारी सामाजिक रीतियां तथा आवेगमें हमें इन पौधोंको भी उखाड़ कर न फेंक हमारे धार्मिक व्यवहारोंकी प्रणालीको परिवर्तित किये देने चाहिए । कौममें कई रीतियां ऐसी भी हैं जो बिना हम इस कार्य में सफलता पा सकते हैं ? हम आवश्यक नहीं तो हानिकारक भी नहीं हैं। एक ओर तो औरोंको जैनी बनानेका उद्योग करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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