Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 83
________________ उन्माद । आया । तब मैं जगदीश्वरका नाम ले अभागिनीको माताकी गोद में छोड़कर दौड़ता हुआ डाक्टरके यहाँ गया। डाक्टर बाबू घरमें विश्राम कर रहे थे । अपने विश्राममें बाधा होते देख क्रुद्ध हो हो उठे । उन्होंने चिल्ला कर कहा, 'निकाल बाहर करो । ' मैं हताश होकर लौट आया । घर आने पर देखा कि अभागिनी मृतमाताकी गोद में सो रही है । " 1 डाक्टर हरिनाथ मित्र आगे कह नहीं सके, कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे । थोड़ी देरके बाद हृदयके उद्वेगको रोक कर फिर कहने लगे“विनोद बाबू, अधिक क्या कहूँ, किसी प्रकार, माताका अंतिम संस्कार कर मैं कलकत्ते चला आया । मातृ-पितृ-हीन अभागिनीको हृदयसे लगाकर मैंने कुछ दिनोंतक उसकी ज्वाला शान्त की । ढूँढ़ने पर मुझे ५० ) का एक ट्यूशन भी मिल गया । मैंने डाक्टर होना निश्चय कर कालेजमें नाम लिखा लिया । ५ वर्षके अविराम परिश्रमसे मैं डाक्टर हुआ । तब तक अभागिनी ६ वर्षकी हो गई । तब निश्चिन्त हो गया । कुछ । “मुझे अपने व्यवसायमें सफलता होने लगी संसारमें कुछ नाम कर जाने की इच्छासे मैं खूब परिश्रम किया करता था । अपने उद्योगमें संलग्न होने के कारण मैं कुछ ही दिनों में अभागिनीकी ओर कम ध्यान देने लगा । एक दिन मुझे विज्ञान-परिषद्की ओरसे निमंत्रण मिला । मुझे उक्त विद्वन्मण्डलीने क्षयरोग पर व्याख्यान देने के लिए कहा था। नाम करनेका ऐसा सुअवसर पाकर मैं खूब आनन्दित हुआ । घर आकर मैं अपने व्याख्यानका विषय देखने में लग गया । देखते देखते मुझे एक नवीन बात सूझी। मैं अपने आविष्कारसे अक्षय्य कीर्ति सम्पादन करनेकी इच्छाके वशीभूत हो उसकी परीक्षा करने लगा। इतने में अभागिनीने आकर कहा, ११-१२ Jain Education International ६०१ 6 जा 2 जा, भैय्यासे 'भैय्या' । मैंने रुष्ट होकर कहा, मैं अभी अपने काममें लगा हूँ । ” अपमानित होकर अभागिनी अपने कमरे में चली गई। रात भर मैं अपने आविष्कारमें लगा रहा, मुझे अपनी अभागिनीकी सुधि नहीं थी। " दूसरे दिन मैं शीघ्र भोजन कर विना अभागिनीको देखे विज्ञानपरिषद् भवनमें अपने अपूर्व आविष्कार पर व्याख्यान देनेके लिए चला गया। कहना नहीं होगा, मेरे उक्त आविष्कारसे सर्वत्र मेरा नाम फैल गया । संसारके प्रतिष्ठित विद्वानोंमें मेरी गणना होने लगी । बड़े बड़े डाक्टरोंने आकर मुझे बधाई दी । अनेक लोगोंसे मुझे निमंत्रण मिला। मैं उल्लास पूर्ण हृदयसे घर लौटा । घर आते ही दासीने कहा 'अभागिनीको आज दिनभर से खूब ज्वर है ।" मेरा हृदय काँप उठा । मैं शीघ्रता से अभागिनी के कमरे में आया। उसे सुधि नहीं थी। तुरन्त ही उसे गोद में उठा लिया । देखा, उसका सब शरीरं ज्वर -तापसे जल रहा था । मैंने विदीर्ण" अभागिनी ! हृदयसे पुकारा, , अभागिनीने आँख खोल कर कहा, 'भैय्या, पानी । ' मैंने ही उसे पानी दिया । पानी पीकर अभातुरन्त गिनी कहने लगी, 'भैय्या, मुझे छोड़कर मत जाओ । मुझे डर लगता है।' मैंने रोका 'अभागिनी बहिन, मैं अब तुझे छोड़कर कभी नहीं जाऊँगा ।" " मैं रातभर अभागिनीकी चिकित्सा करता रहा, पर कुछ लाभ नहीं हुआ। उसकी दशा खराब ही होती गई । अन्तमें उषः कालके समय, जब समस्त पृथ्वी में आलोक फैल रहा था, अभागिनीने मुझे सदाके लिए अन्धकारमें डालकर प्राण त्याग दिये। मैं उसके मृत देहको गोदमें लिये बैठा रह गया। लोक-सेवाका फल मुझे मिल गया । “विनोद बाबू, अब आपका अधिक समय नहीं लूँगा । अभागिनीकी मृत्यु होने पर मेरे हृदयकी प्रसुप्त ज्वाला जागृत हो उठी। संसार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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