Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 96
________________ ६१४ ६ संचालकोंका और समाजका कर्तव्य | जैनहितैषी विद्यालय के संचालकों को इस मामले की ओर पूरा पूरा ध्यान देना चाहिए और यह एक क्षण के लिए भी न भूल जाना चाहिए कि समाज विद्यालयको जो कुछ द्रव्य देता है, वह हम लोगों के विश्वास पर देता है । समाजका भी यह कर्तव्य है कि वह तब तक शान्त न हो जब तक कि उसे भली भाँति यह न मालूम होजाय कि विद्यालयकी दशा अच्छी है, और हमारे धनका सदुपयोग हो रहा है। अधिकारियों का चुनाव बहुत कुछ सोच विचार कर किया जाना चाहिए । यह दशा बहुत ही असंतोषजनक है कि सभा पति, उपसभापति, अधिष्ठाता और मंत्री तक संस्थासे दूर रहते हैं और उनका संस्थाके साथ साक्षात् सम्बन्ध बहुत कम रहता है । कमसे कम अधिष्ठाता और मंत्री तो स्थानीय ही रहने चाहिए । हमें आशा है कि किसी भीतरी कार णसे यह मामला दवा न दिया जायगा । ७ लार्ड बेकनकी सलाह | सुप्रसिद्ध विचारक लार्ड बेकन के नीचे लिखे विचार- जो उन्होंने एक ही धर्म के अनुयायियों के बीचकी शान्ति और क्लेशमय स्थिति के सम्बन्धमें प्रकट किये थे-जैनों के लिए अत्यन्त उपकारक समझकर उद्धृत किये जाते हैं: - " एक ही धर्म के माननेवालों के बीचमें गाली गलोज या मारपीट हो तो उसका दो प्रकारका प्रभाव पड़ता हैं । एक तो उस धर्म से बाहर के मनुष्यों पर पड़नेवाला प्रभाव और दूसरा उसी धर्म के अनुयायियों पर पड़नेवाला प्रभाव । ( १ ) एक ही धर्मके लोगों को एक दूसरे की निन्दा करते और एक दूसरेकी पूजन Jain Education International विधियोंको असत्य ठहराते हुए देखकर, बाहरके लोगों के विचार उस धर्मके विषयमें अच्छे नहीं रहते और ( २ ) उस धर्म के माननेवालों के बीचमें निन्दा, झगड़ा आदि चलने से उनकी शान्ति प्रगति और बलकी हानि होती है । " V. M. Shah. ८ विधवा-विवाहका प्रश्न | अन्यत्र प्रकाशित 'विधवाविवाह-विचार' शीर्षक लेखपर विधवाविवाहके अनुयायी और विरोधी दोनों को ही विचार करना चाहिए। लेख बहुत ही महत्त्वका है और बहुत ही विचारपूर्वक लिखा गया है । परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह मुख्यतः हिन्दूसमाजपर दृष्टि रख कर लिखा गया है । इस लिए इसकी सभी बातें जैनसमाजकी परिस्थिति के अनुकूल नहीं हो सकतीं । जैसे कि, इसमें यह माना गया है कि हिन्दुओं में स्त्रियोंकी संख्या अधिक है और पुरुषों की कम है, इसलिए यदि चिरवैधव्यकी प्रथा उठा दी जायगी तो फिर विधवाओंके बदले बहुतसी कुआँरियोंको अविवाहित रहना पड़ेगा | परन्तु जैन समाजकी परिस्थिति हिन्दुओंसे ठीक उलटी है । अन्यत्र प्रकाशित श्रीयुत बाबू माणिकचन्दजीके व्याख्यानमें दी हुई संख्याओं से मालूम होगा कि जैनसमाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषोंसे बहुत ही कम हैं और इस कारण कुआँरों की संख्या बहुत ही भयंकर रूपसे बढ़ रही है । ऐसी दशा में इस बातका निर्णय होनेकी आवश्यकता है कि इस लेख में सिद्ध किये हुए उच्च आदर्शकी रक्षा करना अच्छा है; या विधवाविवाह जारी करके जैनसमाजकी घटती हुई संख्याको रोकना अच्छा है । यदि उच्च आदर्शकी रक्षा करना है, और विधवाविवाहको जारी नहीं करना है, तो फिर कोई For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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