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विविध-प्रसंग। Imramiminimumar
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१३ लालाजीकी ललाई। हुए व्यभिचारियों जैसा कार्य करें। अगरं तीर्थक्षेत्रकमेटीके महामंत्री लाला प्रभुदयालजीको हमार लखक कुछ अशको लेकर ही लिखना या दूसरेहमारे पाठक अच्छी तरह जानते हैं। पिछले अंकमें
से लिखाना था तो हमारा पूरा लेख छाप कर फिर हमने उस लेखको अनुचित बतलाया था जो उन्होंने .
उसके ऊपर जी चाहे जैसा आक्षेप करते। और फिर बाबू दयाचन्दजी गोयलीयके हिसाब पूछने पर जैन
देखते कि कैसा मुंह तोड़ जवाब दिया जाता है । मित्रमें प्रकाशित कराया था। हमने यह भी लिखा
लेकिन आप ऐसा करते ही क्यों, आपको तो अपनी था कि जैनमित्रमें जो लेख छपा है. वह ब्रह्मचारीकी कूट नातिका परिचय देना था। मालूम होता है कि कृपासे ज्योंका त्यों नहीं छपा । उन्होंने उस लेखको
इसी लिये बिना छपे हुए लेखका आप नहीं तो दूसरों बहुत ही ठंडा करके छापा है; असली लेखमें गोय
द्वारा प्रतिवाद कराया, सो भी मन माना, और लीयजी पर बहुत बुरी तरहसे आक्रमण किया गया जनहितैषाम ! जिसको कि बम्बई प्रांतिक था। इस पर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी पर. देखिए. सभाके तिरस्कार करनेसे हम लोग खरीलालाजी किस तरह लाल हुए हैं:
दते नहीं। मगर तो भी आप याद रखिये कि वह
जैसा लेख है वैसा ही मजेदार मखमली जवाब भी "मित्रसंपादककी कुटिलाई। दिया जायगा । परंतु कृपानिधान ब्रह्मचारी 'जैनमित्र ' बंबई प्रांतिक सभाका एक मुख्य पत्र जी ! पहलेसे ही तुम्हारे ब्रह्मचर्यमें कुछ है । ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी उसके संपादक हैं । इल्ली लग रही है । अब ज्यादा इन अन्यायआपका हृदय ऊपरसे तो स्वच्छ और सरल मालूम पोषक कार्याध्यक्षोंके सम्मिलित हो अपने चारित्रमें पड़ता है, परंतु उसके भीतरमें न मालूम किस कषाय- सिंवाल और जंग न चढ़ाइये । नहीं तो इसका जो पिशाचिनीके कारण कुट-नीतिने प्रवेश कर रक्खा है। कुछ परिणाम होगा वह आपके लिये और इस भेषके यह कहना भी अनुचित न होगा कि आप भी उन लिये अत्यन्त शोचनीय और लज्जाप्रद होगा। किम. भ्रष्टपंथियोंकी हांमें हां मिलानेवाले हैं जो कि विधवा- धिकम् । मु. लखनऊ, ता. १७-११-१६।। विवाह आदि ऐसे निषिद्ध कार्यों के पोषक हैं। इसीसे तो जो लेख विधवाविवाह ब्रदरहड आदि कार्यों के समाजसेवक, भागमल प्रभुदयाल, महामंत्री भा०व० विरुद्ध आपके पास जाता है उसे या तो आप कापते दि. जैन ती० क्षे० कमेटी।" ही नहीं या. उसमें काट छाँट कर डालते हैं । इस लेखमें जो यह कहा गया है कि ब्रह्म
आश्विन मासमें एक लेख जातिप्रबोधक पत्रके किये चारीजीने दूसरों द्वारा ( अर्थात् जनहितैषी द्वारा) 'हए तीर्थक्षेत्र कमेटीके आक्षेपोंके जवाबमें आपके पास प्रतिवाद कराया है, सो सर्वथा असत्य है। ब्रह्मचारीजी भेजा गया था। उसमें आपने कुछ काट छांट कर उन दिनों बड़ौदेमें थे जब लालाजीका लेख उनके पास छापनेकी सम्मति मांगी; और इसी लिये देखनेको गया था। उन्होंने लेखको काट छाँटकर बम्बई भेज वह लेख भी लौटा भेजा। परंतु हमको वह काट छांट दिया था और यहीं आकस्मिक रीतिसे उसका हमको मंजूर न थी इसलिये हमने फिर वह लेख उनके पास पता लग गया था। इसमें न उनका कोई दोष था और छापनेको न भेजा। परंतु अफसोसका विषय तो यह न दफ्तरके आदमियोंका । हमारे और ब्रह्मचारीजीके है कि जिस लेखको हमने काट छांट कर छपाया नहीं, विचारों में बहुत बड़ा अन्तर है । उनकी यह नीति
और उन्होंने अपने संपादकीय बलसे उसे छापा नहीं है कि किसीकी बुराई न की जाय, किसीपर आक्षेप फिर भी उस लेखकी कुछ बातको लेकर जैनहितैषीने न किया जाय और हमारी यह नीति है कि बात हमारे ऊपर आक्षेप किया है, जिसमें कि लेखकका साफ साफ और सत्य कही जाय, चाहे वह किसीको नाम छिपाया गया है। बड़े अफसोस और शरमकी बुरी लगे चाहे भली । ऐसी दशामें यह संभव नहीं बात है कि आप सत्यव्रती ब्रह्मचारी कहलाते कि वे हमारे द्वारा किसीकी बातका प्रतिवाद करावें ।
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