Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 95
________________ na MOTIONARALIAR विविध प्रसङ्ग । हैं जो उनमें रहकर पढ़ते हैं ! दो तीन वष ' २-इस समयकी घोर अशांतिका ठीक कारण पहले काशीके एक छात्रका पत्र यहाँकी एक ज्ञात हो जाने पर भी दोषीको सभा दंड देना संस्थाके सैक्रेटरीके पास आया था जिसमें स्पष्ट उचित नहीं समझती वरन् जिसका इस झगड़ेसे शब्दोंमें लिखा था कि " आपको स्काल कोई सम्बंध नहीं उस निर्दोष व्यक्तिको पृथक शिप देना हो तो दीजिए, नहीं तो, कर देनेके लिए प्रस्तुत है। हम कोई दूसरा प्रबन्ध कर लेंगे । " ३-सभाने मुझे अशांतिका कारण जानने और उसका उचित प्रबंध करनेको नियत किया था। ये भाव हैं जिन्हें लेकर संस्कृतके छात्र बाहर निकलते हैं और जैनसमाजके धर्मशिक्षक बनते कारण ज्ञात हो जानेपर सभाको मैंने वह ज्योंहैं ! हम ऐसे अनेक पण्डितोंके नाम जानते का त्यों बतला दिया। ऐसा करनेमें मुझे जो अपहैं जो ३०-३५ से लेकर ५०-६० रुपये राधी था उसका दिल दुखाना पड़ा था। किन्तु : जब सभा अपनेको इतनी शक्तिहीन समझती हे मासिक तककी जीविका करते हैं; पर जिन कि अपराधीको दंड देनेमें असमर्थ है और संस्थाओंसे चार चार छह छह और इससे भी ' उसहीके कहनेके अनुसार चलनेको और अपअधिक वर्षों तक छात्रवृत्तियाँ लेकर वे संस्कृतके. राधीहीकी 'खुशामद' करनेको प्रस्तुत है तब पण्डित बने हैं, उनको कभी पाँच रुपयेकी भी ' मैं देखता हूँ कि मैं अपने आत्मसम्मानकी रक्षा सहायता करना अपना कर्तव्य नहीं समझते . हैं। दो चार पण्डित ऐसे भी हैं जिन्होंने ' " सभाका सदस्य रह कर नहीं कर सकता। रथप्रतिष्ठाओंकी दक्षिणाओंसे दश दश ४-व्यक्तिविशेषके लाभ और हानिपर दृष्टि बीस बीस हजार रुपये कमा लिये हैं; पर जिनकी रखकर सभा विद्यालयके उचित प्रबंधकी ओर ओरसे कहीं किसी विद्यासंस्थामें दश बीस रुप ध्यान नहीं देती; ऐसी दशामें समाजका ५००-६०० रु० मासिक व्यय होकर भी उसका योंका दान दिया गया भी नहीं सुना है; यद्यपि कोई लाभ नहीं हो सकता, इस लिए वे स्वयं दूसरोंकी सहायतासे पढ़े हैं ! कृतघ्नता सभा समाजके प्रति दोषी है-मैं इस दोषका और स्वार्थसाधुताके इन भावोंको दूर करनेका भागी नहीं बनना चाहता। जबतक हमारी संस्थायें प्रयत्न नहीं करेंगी, ५-मैं देखता हूँ कि विद्यालयके प्रबन्धमें तबतक यही दशा रहेगी। इतनी गड़बड़ी है कि जिससे उसकी और समा५बाबू निहालकरणजीका इस्तीफा। जकी बहत हानि होती है और यह भी जानता __“बनारस है कि यह सभा उसका उचित प्रबंध करनेमें __३०-१०-१६ बहुत शिथिल है। अतः अब समय आगया है श्रीमान् उपसभापति महोदय कि इसका यथार्थ चित्र समाजके सम्मुख रक्खा श्रीस्याद्वादमहाविद्यालय काशीकी सेवामें, जाय । समाजसे इसके कुप्रबंधकी कथा छुपानेसे निवेदन है कि निम्नलिखित कारण मुझे अब कोई लाभ नहीं हो सकता । इत्यादि। विवश करते हैं कि मैं विद्यालयकी प्रबंधकारिणी अतः आशा है कि आप कृपा कर मेरा इस्तीफा सभाका सभासद अब न रहूँ:- स्वीकार करेंगे। १-ऐसा जान पड़ता है कि इस सभाको भवदीय मेरी बातोंकी सत्यतापर विश्वास नहीं होता। निहालकरणसेठी ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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