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विधवा-विवाह-विचार।
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देशकी जनसंख्याका ह्रास होगा तो अवश्य ही निवृत्तिमार्गका अनुसरण करती हैं । उस सुपथसे देशकी अवनतिसे इसका कोई सम्बन्ध है, यह लौटाकर उन्हें विपथगामी बनानेकी चेष्टा करना, बात मान ली जाती। किन्तु वास्तवमें स्त्रियोंकी न तो उनके लिए हितकर है और न साधारण अपेक्षा पुरुषोंकी संख्या कम है, अतएव विधवा
समाजके लिए । इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दू
विधवाओंके दुःसह कष्टोंका विचार करनेसे हृदविवाह प्रचालित होनेसे सभी कुमारियोंको पति नहीं मिल सकेंगे, बहुतोंको आजन्म कुमारी .
यमें अतिशय वेदना होती है, किन्तु उनकी रहना पड़ेगा। ऐसी दशामें जब तक यह न '
" लोकोत्तर कष्टसहिष्णुता और उनके असाधारण मान लिया जाय कि पाश्चात्य देशोंकी सभी स्वार्थत्यागके प्रति दृष्टि डालनेसे मन एक ही रीति-नीतियाँ अनुकरणीय हैं तबतक विधवावि- साथ विस्मय और भक्तिसे भर जाता है। हिन्दू वाह प्रचालित करनेकी चेष्टा निष्कारण है। विधवायें ही संसारमें पतिप्रेमकी पराकाष्ठा दिखाशीतोष्णमय जडजगतमें वही 'सबल
. ती हैं। उनकी उज्ज्वल मूर्तियोंने इस समय शरीर,' कहलाता है जो बिना कष्टके गर्मी सर्दी- नाना
नाना दुःखरूपी अन्धकारसे भरे हुए हिन्दु. को सहन कर सकता है और रोगी नहीं होता। ऑक घरोको प्रकाशित कर रक्खा है । इसी तरह सुखदु:खमय संसारमें वही सबलमना
उनके प्रकाशमान दृष्टान्त हिन्दूनरनारियोंकी कहा जाता है जो समभावसे सुखदुःख भोग सकता
जीवनयात्राके पथप्रदर्शक बन रहे हैं। उनका
पवित्र जीवन पृथिवीका एक दुर्लभ पदार्थ है । है; दुःखमें जो व्याकुल नहीं होता है और सुखमें
1 हिन्दू विधवाओंकी चिरवैधव्य प्रथा हिन्दू विगतस्पह (इच्छारहित ) रहता है। निरवच्छिन्न (अखण्ड) सुख किसीको प्राप्त नहीं है, दुःखका भाग के अनेक स्थान हैं और सुधारकोंके लिए काम
समाजका देवीमन्दिर है। हिन्दू समाजमें सुधारसभीके हिस्सेमें आता है; ऐसी दशामें वही शिक्षा की कमी नहीं है: न जाने कितने स्थानोंको शिक्षा कही जा सकती है जिसके द्वारा शरीर और मनका ऐसा गठन हो जाय कि दुःखका बोझा ,
वर्तमान काल और अवस्थाके अनुकूल उपयोगी उठाने में कुछ भी कष्ट न हो । सुखाभिलाषा विनयके साथ प्रार्थना है कि वे विलासभवन
बनाना है। इस लिए उनसे हमारी बहुत ही होने पर उसी सुखकी कामना करनी चाहिए बनानेके लिए उक्त देवीमन्दिरको तोड़ फोड़ जिसका कभी ह्रास न हो और जिसमें दुःखकी डालनेकी कृपा न करें। कालिमा न मिली हो। एक पतिके मर जानप दूसरा पति तो मिल सकता है, परन्तु यदि कोई
इस लेखसे कोई सज्जन हमें समाजसुधारका पुत्र भर गया, तो वह कहाँसे आवेगा ? उसके
विरोधी न समझ लें । हम वास्तविक सुधारको अभावकी पूर्ति कैसे होगी? जिस मार्ग पर
बुरा नहीं समझते । हम जानते हैं कि समाज चलनेसे सारे अभावोंकी पूर्ति हो जाती है,
र परिवर्तनशील हैं, किसी समय भी वह स्थिर अर्थात् अभावका अभावरूपमें बोध नहीं होता है,
९, नहीं रह सकता । हमारा विश्वास है कि जगत् वही निवृत्तिमुखमार्ग, प्रेय ( प्रिय ) न होनेपर
' निरन्तर गतिशील है और वह गति, बीच बीचमें भी, श्रेय ( कल्याणकारी ) है। उसी मार्गपर व्यतिक्रम होते रहने पर भी, परिणाममें उन्नतिजो चलते हैं वे वास्तवमें स्वयं भी सखी होते हैं मुखी है । हम चाहते हैं कि समाजसुधार या और अपने उज्ज्वल दृष्टांत द्वारा औरोंके दुखोंका संस्कारका लक्ष्य वास्तविक उन्नति अर्थात् आध्याभार भी, सर्वथा नहीं तो बहुत कुछ, हल्का कर त्मिक उन्नतिकी ओर बराबर बना रहे और देते हैं । हिन्दूविधवायें अपने शरीर और मनको इसी लिए किसीको भलीं लगें या बुरीं, हमने ब्रह्मचर्य और संयमके द्वारा संशोधित करके उसी समाजसुधारक सज्जनोंसे इतनी बातें कह डाली।
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