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GIELITITICALCHODAI
जैनहितैषी
स्त्रियोंका पक्ष लेकर कह रहे हैं। पुरुषोंको इच्छा- प्रबल हैं। यह सच है कि देहरक्षाके लिए पूर्वक या इच्छा न रहने पर भी, जीवननिर्वाह- कितनी ही आवश्यकताओंकी पूर्ति अवश्य के लिए समय समय पर कठोर और निष्ठुर काम करनी चाहिए; परन्तु मन और आत्माके ऊपर करने पड़ते हैं आरै इस लिए उनका हृदय तथा देहका स्वामित्व रखनेकी अपेक्षा, देह पर मन मन निष्ठुर हो जाता है, जिससे कि उनके और. आत्माका स्वामित्व रखना अधिक वाञ्छआत्मोका पूर्ण विकाश होने में बाधा पड़ती है। नीय है और यदि देहका किञ्चित् कष्ट स्वीकार पर स्त्रियोंको ऐसे काम नहीं करने पड़ते । इस करनेसे मन और आत्माकी उन्नति होती हो, लिए उनके हृदय और मन कोमल रहते हैं। तो उस कष्टको कष्ट ही न गिनना चाहिए । इसके सिवाय स्वभावसे ( शायद सृष्टिरक्षाके पशुओंसे मनुष्य जाति इसी कारण तो श्रेष्ठ और लिए ) उनकी मति स्थितिशील और निवृत्ति- क्रमोन्नतिप्राप्त कहलाती है कि मनण्य देहका मार्गमुखी होती है और उनकी सहिष्णुता, कष्ट स्वीकार करके बुद्धिके द्वारा प्रवृत्तियोंपर स्वार्थत्याग करनेकी शक्ति और परार्थपरता या शासन करता है और भावी अधिक सुखके परोपकारवृत्ति पुरुषोंकी अपेक्षा बहुत अधिक उद्देश्यसे वर्तमान अल्पसखके लोभको रोक होती है । ऐसी दशामें उनके लिए स्वार्थत्यागके करके रखता है । पशु जब भरखा होता नियम यदि पुरुषसम्बधी नियमोंकी अपेक्षा है तब अपने परायेका विचार न करके अपने काठनतर हों तो समझना चाहिए कि वे उनके पाल- सामने जिस खाद्य पदार्थको पाता ह उसीको नेमें समर्थ हैं, इसी लिए वैसे बनाये गये हैं और यह खा जाता है । असभ्य और बर्बर मनुष्य भी नियमोंकी विषमता उनके गौरवकी ही चीज जरूरत होने पर अपने परायेका विचार न है लाघवकी नहीं। इसी लिए हमने यहाँ पर उन- करके जिस किसी जरूरी चीजको पाता है, की प्रतिहिंसाको असंगत कहा है । और जो ग्रहण कर लेता है; परन्तु सभ्य मनुष्य चाहे लोग उन्हें इस असंगत प्रतिहिंसाके लिए उत्ते- जितनी जरूरत क्यों न हो, दूसरेकी चीजको जित करते है, उन्हें उनके वास्तविक हितैषी नहीं लेता। इसी प्रकार विधवायें यदि कुछ मानने में हमें संकोच होता है।
देहिक कष्ट स्वीकार करके, चिरवैधव्यवत-पालदूसरी बात यह कही जाती है कि यह नेके द्वारा आत्मोन्नति करने आर परहितसाधन अतिशय निर्दय प्रथा, विधवाओंकी दुःसह वैधव्य- करने में समर्थ हो सकती हैं तो उनके उस यंत्रणाके प्रति आँख उठाकर भी नहीं देखती : कटको कष्ट ही न समझना चाहिए और इसलिए यदि विधवाओंकी शारीरिक अवस्थाके प्रति जो लोग उन्हें उस कष्टकं स्वीकार करनेकः हाष्ट दी जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना उपदेश देते हैं वे उनके मित्र ही हैं-शत्रु नहीं! हागा कि यह आपत्ति बहुत ही प्रबल है। चिरबंधव्यव्रतका पालन करने के लिए विधवाऐसे दयाहीन हृदय बहुत ही थोड़े होंगे, जो ऑको और और सत्कर्मकि समान निमित्त, विधवाओंके देहिक दःखसे दुखी न हों। परन्त संयम और शिक्षाकी विशेष आवश्यकता है हम यह न भूल जाना चाहिए कि मनष्य विधवाका आहार व्यवहार संयत और ब्रह्मचर्योकेवल 'देही ' नहीं है, उसके मन और आत्मा पयोगी होना चाहिए । यदि शारीरिक वृत्तियों को देहकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान् और अधिक उत्तेजित करनेवाले पुष्ट आहार और मानसिक
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