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जैनहितैषीdifilm
यदि विधवा आध्यात्मिक भावसे पतिप्रेमका कर लेती हैं तो उन्हें 'मानवी' ही कहना अनुशीलन करना चाहती है तो उसके लिए चाहिए; परन्तु जो पवित्र भावसे चिरवैधव्यदूसरा पति ग्रहण करना निष्प्रयोजन है, साथ ही पालनमें समर्थ हैं उन्हें 'देवी' कहना चाहिए बाधाजनक भी है। क्योंकि उसने पहला पति और उनके जीवनको ही विधवाजीवनका उच्चाप्राप्त करनेके समय, उसीको पतिप्रेमका पूर्ण दर्श मानना चाहिए। आधार माना है और उसे ही आत्मसमर्पण बहुत लोग ऐसे भी हैं जो यह स्वीकार करते किया है। अतएव उसकी मृत्युके पश्चात् उसे हैं कि चिरवैधव्यपालन उच्च आदर्श है; परन्तु अपने हृदयमें धारणकीहुई उसकी मूर्तिको कहते हैं कि यह उच्चादर्श सर्वसाधारणके लिए जीवित रखना चाहिए और उसीके प्रति अविचल अनुसरण योग्य नहीं है। इसलिए सर्व साधाप्रेम रखना चाहिए; बस यही उसके लिए निः- रणके लिए विधवाविवाहका प्रचार होना उचित स्वार्थ प्रेम और आध्यात्मिक उन्नतिका साधन है। है । इस विषयमें जो युक्तियाँ दी जाती हैं यहाँ अवश्य ही वह उस प्रेमका प्रतिदान या बदला नहीं उनके विषयमें, आइए, थोड़ासा विचार कर लें। पायगी;परन्तु उच्चादर्शका प्रेम बदला नहीं चाहता। उक्त युक्तियोंकी आलोचना करने के पहले हम यदि वह (विधवा) दूसरा पात ग्रहण कर इसी विषयकी कछ बातोंका खुलासा कर देना लेगी, तो पतिप्रेमानुशीलन नहीं कर सकेगी- चाहते हैं । विधवाविवाहके सम्बन्धमें अभीतक जो उसके पतिप्रेममें बड़ी भारी बाधा आ पड़ेगी।
गा। कुछ कहा गया है वह हिन्दूशास्त्रोंका नहीं, किन्तु उसने जिस पहले पतिको पतिप्रेमका पूर्ण आधार
१ सामान्य युक्तियोंका कथन है, और आगे भी मानकर आत्मसमर्पण किया था उसे उसको
हम जो कुछ आलोचना करेंगे वह सब युक्ति. भूल जाना होगा, अपने हृदयमें अंकित की .
मूलक होगी, हिन्दूशास्त्रमूलक नहीं । अतएव हुई मूर्तिको पोंछ देना होगा और जो ,
। यहाँ यह प्रश्न नहीं है कि विधवाविवाह कभीप्रेम अर्पण किया था उसे वापस लेकर दूसरे किसी
। किसी अवस्थामें भी होना चाहिए या नहीं। पात्रमें अर्पण करना पड़ेगा । ये सब कार्य ऐसे -
एस प्रश्न है उच्चादर्शके सम्बन्ध में । चिरवैधव्य उच्चाहैं जो आध्यात्मिक उन्नतिके मागेम बड़ी भारा र्श होने पर भी यह नहीं समझा जाता कि उस बाधा डालते हैं और इस कारण उसके साधक आदर्श अनसार सब ही चल सकते हैं। यह अवश्य कभी नहीं हो सकते । यह ठीक है कि मृत
त स्वीकार करना पड़ेगा कि दुर्बलदेहधारिणी मानवी
बी पतिकी मूर्तिका ध्यान करते रहना और उसके पार
सक स्त्रीके लिए प्रथम अवस्थामें वैधव्य बहुत ही कष्टकर पति प्रेम और भक्ति अचल रखना बहुत ही काठन है। वह कष्ट कभी कभी-जैसे कि बालबंधव्यके कार्य है; परन्तु वह सर्वथा असाध्य और असुख
___ समय-बहुत ही मर्मविदारक होता है और विधहिन्द्रविधवाओंकं पवित्र जीवनम वाके कनमें सबका ही हृदय व्यथित होता है । इसके अनेक प्रमाण मिल सकते हैं । हम यह जो विधवायें आध्यात्मिक बलसे उस कष्टको
कहते कि सब ही स्त्रियाँ चिरवधव्य पालन धीरतासे सहन करके धर्मव्रतमें जीवन उत्सर्ग कर करनेमें समर्थ हैं । जो असमर्थ हैं-रँडापा नहीं सकती हैं उनका कार्य अवश्य ही प्रशंसनीय है; घर काट सकती हैं, उनके लिए हृदय अवश्य ही जो ऐसा नहीं कर सकती हैं-असमर्थ हैं, उनका व्यथित होता है और यदि वे दूसरा पति ग्रहण कार्य प्रशंसनीय नहीं है; परन्त साथ ही उस कार्य
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