Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 85
________________ amBAIMILIATIMADIMITATARIAR विधवा-विवाह-विचार। ६०३ पातपूर्ण होनेके कारण अन्य समाजके लोगोंकी पातके ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं था, और दृष्टिमें और हिन्दूसमाजसुधारकोंकी दृष्टिमें यह सन्तान उत्पन्न होनेपर दूसरा पति ग्रहण करनेमें बुरी और अन्यायपूर्ण समझी जाती है। उस सन्तानके पालनमें विघ्न पड़ता, अतः उस परन्तु यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि दशामें चिरवैधव्य केवल उच्चादर्श ही क्यों प्रयोयदि देशके आधे लोग ( स्त्रियाँ ) किसी उच्चा- जनीय होता । किन्तु विवाहके दूसरे उद्देश्यकी दर्शानुयायी प्रथाका पालन करते हों और दूसरे ओर दृष्टि रखनेसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं आधे ( पुरुष ) उसका पालन न करते हो, तो रहता कि चिरवैधव्यपालन ही उच्चादर्श है। इसमें उन लोगोंका ( पुरुषोंका ) दोष है-इससे जो पतिप्रेमका विकाश धीरे धीरे पत्नीकी वे लोग ही निन्दनीय समझे जायँगे-वह प्रथा स्वार्थपरताको नाश करनेका और आध्यात्मिक निन्दित नहीं हो सकती । जब चिरवैधव्य- उन्नति करनेका हेतु होगा, वहीं यदि पतिके पालन उच्च आदर्शकी प्रथा है तब केवल इसी अभावमें लप्त हो जाय और पत्नी अपने सखके लिए कि परुष पत्नीवियोग हो जाने पर अन्य स्त्री लिए उसे अन्य पतिमें न्यस्त कर दे, तो बतलाग्रहण कर लेते हैं, उसे मिटा डालना अच्छा इए इसमें स्वार्थपरताका नाश क्या हुआ? इसके नहीं हो सकता-कर्तव्य नहीं बन सकता , उत्तरमें कभी कभी विधवाविवाहके अनयायियों बल्कि जिस स उपायसे पुरुष भी उच्चादर्शके अनु. द्वारा यह कहा जाता है कि "जो लोग विधवायायी बन जावें, वही उपाय करना, समाज. विवाहका निषेध करते हैं वे विवाहको केवल सुधारकों का कर्तव्य है । अतएव मूल प्रश्न इन्द्रियतृप्तिके लिए ही आवश्यक समझते हैं और यह है कि-पुरुष कुछ भी करते हों, इससे मत- विवाहका उच्चादर्श भूल जाते हैं। वास्तव में लब नहीं-स्त्रियों का चिरवैधव्य पालन जीवनका विधवाका विवाह करना इसलिए कर्तव्य है कि उच्चादर्श है या नहीं । इस प्रश्नका वास्तविक उत्तर वह केवल इन्द्रियतृप्तिका कारण नहीं है, किन्तु पानेके लिए हमें विवाहके उद्देश्यकी ओर दृष्टि पतिप्रेम सन्तानस्नेहादि समस्त उच्चवृत्तियोंको डालनी होगी। विकसित करता है । " परन्तु सुधारकोंकी यह अवश्य ही संयत भावसे इन्द्रियताप्तिसाधन, बात कुछ विचित्र मालूम होती है। देखना सन्तानोत्पादन और सन्तानपालन यह विवाह- चाहिए, यह कथन कहाँतक ठीक उतरता है कि का सबसे पहला उद्देश्य है; परन्तु विवाहका विधवाविवाहका निषेध विधवाकी आध्यात्मिक केवल यही एक और सबसे श्रेष्ठ उद्देश नहीं है। उन्नति के लिए बाधाजनक है और विधवाविवाहका द्वितीय और श्रेष्ठ उद्देश है दाम्पत्यप्रेम विवाहका विधान उस आध्यात्मिक उन्नति के साध( पति-पत्नी-प्रेम ), और सन्तानस्नेहसे धीरे नका उपाय है। धीरे चित्तकी सत्प्रवृत्तियों का विकाश होते जाना पतिप्रेम एक ही साथ सुखका आकर और और उनके द्वारा स्वार्थपरताका नाश, परार्थ- स्वार्थपरताके नाशका उपाय है । यदि वह केवल परताकी वृद्धि तथा आध्यात्मिक उन्नतिका सुखका आकर माना जायगा, अर्थात् ऐहिक प्राप्त होना । यदि पहला उद्देश्य ही विगहका भावसे ही अधिक आदूत होगा, तो उसके द्वारा एक मात्र उद्देश्य होता तो सन्तान उत्पन्न हो स्वार्थपरताके नाशकी अर्थात् आध्यात्मिक 'जानेके पहले पतिवियोग हो जाने पर दूसरे भावके विकाशकी संभावना बहुत ही कम रहगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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